- साइंस एंड हेरिटेज रिसर्च इनीशियेटिव के अंतर्गत सारिका का वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण
इटारसी। पारंपरिक ज्ञान का आज के वैज्ञानिक तथ्यों के साथ किस प्रकार जांच-परख कर सकते हैं और कैसे अन्य लोगों को लाभान्वित कर सकते हैं, इन बातों को लक्ष्य रखते हुये नेशनल अवार्ड प्राप्त विज्ञान प्रसारक सारिका घारू आदिवासी बहुल क्षेत्रों में श्रीअन्न के अंतर्गत कुटकी तथा अन्य श्री अन्न की खेती की प्रक्रिया का दस्तावेजकरण कर रही हैं।
सारिका ने बताया कि फसल की बुआई से लेकर कटाई, भंडारण एवं उससे तैयार किये जाने वाले आदिवासी व्यंजनों की जानकारी ले रही हैं। भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत साइंस एंड हेरिटेज रिसर्च इनीशियेटिव जिसे श्री कहा जाता है की पहल पर ये दस्तावेजीकरण कर रही हैं। खेती कर रहे आदिवासी परिवारों ने इसका महत्व बताते हुये कहा कि कुटकी में जश है, इसे काटो, घर लाओ, कूटो, पीसो या पकाओ ये हर स्थिति में बिखरता है। इसे दस साल भी रख लो तो कोई कीट, बीमारी नहीं लगती है।
इसका उत्पादन बिना किसी रसायनिक खाद, या केमिकल वाल दवाओं के होता है। सारिका ने बताया कि वर्तमान में कुटकी की फसल सीमित क्षेत्र में लगाई जा रही है जिसका उपयोग उनका परिवार ही महिलाओं को डिलेवरी के बाद दो से छह माह तक पोषण के लिये दवा के रूप में दिया जा रहा है। इसका कोई विशेष व्यंजन न बनाकर वे सिर्फ पानी मे उबालकर बनाते हैं। एक हजार से अधिक लोगों से बातचीत कर यह बताया कि कोदों के कुछ पौधों में नशा और उल्टी कराने का दुगुर्ण देखा गया है। इस कारण कोदों का उत्पादन लगभग समाप्त कर दिया है।
सारिका ने बताया कि इसकी पारंपरिक खेती के तरीके को जीवित रखने में इसके आर्थिक पक्ष को मजबूत करना होगा इसके लिये शहरी नई पीढ़ी जो इनसे अनभिज्ञ है उसे इसके निरंतर उपयोग के लिये प्रेरित करना होगा। कुटकी को अब आप सभी के किचन तक पहुंचाने की आवश्यकता है।