- पंकज पटेरिया, वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं ज्योतिष सलाहकार भोपाल

लोकतंत्र की आत्मा संवाद में बसती है, लेकिन जब जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग मौन को ढाल बना लेते हैं, तो यह बात केवल व्यक्तिगत दर्शन नहीं रहती, बल्कि एक गैर-जिम्मेदाराना आचरण बन जाती है। पिछली केंद्र सरकार के एक मुखिया, जिन्हें उनकी लगातार चुप्पी के चलते लोग मोनी बाबा कहकर पुकारने लगे थे, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के धनी थे। मगर, जब देश भीषण संकटों से घिरा होता था—चाहे वह आतंकी हमला हो या कोई और राष्ट्रीय विपदा—तब भी उनकी चुप्पी नहीं टूटती थी। आलोचनाओं के बीच, उन्होंने एक मशहूर शेर उछाल दिया था, हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी है।
यह पंक्ति सुनने में तो आकर्षक लगती है, लेकिन एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रमुख के लिए यह एक गहरा प्रश्नचिह्न खड़ा कर देती है। जिस जनता ने आप पर भरोसा जताया है, आपको उनकी समस्याओं को देखना चाहिए, सवालों के उत्तर तलाशने चाहिए। ऐसे में यह शेर उछालना, क्या गैर-जवाबदारी नहीं है?
विधानसभा में पसरा मौन और डॉ. शर्मा का संवाद
यही स्थिति अक्सर राज्यों की विधानसभाओं में भी देखने को मिलती है। हाल ही में संपन्न सत्र में भी यही हुआ—कुछ दर्जन सदस्यों के होंठ खुले, मगर ज्यादातर खामोशी ओढ़े रहे। ऐसे में, यह सवाल उठता है कि अगर जन-प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के मुद्दों पर सदन में चुप बैठे रहते हैं, तो उन्हें यह दायित्व किसी और को सौंप देना चाहिए। लोकतंत्र की गरिमा तभी बनी रहेगी जब चुने हुए प्रतिनिधि मुखर हों।
इस निराशाजनक माहौल में, नर्मदापुरम-इटारसी के कर्मठ और विधायक, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष डॉ. सीतासरन शर्मा, ने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने सौजन्यता और सौम्यता से, तर्कों के साथ, अपनी ही सरकार के माननीयों से क्षेत्र की समस्याओं को लेकर मुखर होकर सवाल पूछे। इस जनहितैषी आचरण से उन्होंने अपना आभामंडल और अधिक प्रभा मय बना लिया और अपनी जन्ममुखी जवाबदारी निभाई। राजधानी सहित हर तरफ उनके इस संवाद-प्रिय रुख की सराहना हो रही है।
लोकतंत्र की गौरवपूर्ण विरासत
लोकतंत्र का तकाजा हमेशा संवाद रहा है। पंडित नेहरू के समय की यह गौरवपूर्ण विरासत हमें याद रखनी चाहिए, जब महान प्रधानमंत्री अटल जी किसी कारणवश संसद में नहीं आ पाते थे, तो नेहरू कहते थे, आज अटल जी नहीं आए, मजा नहीं आएगा।
माननीयों को अपनी इस गौरवपूर्ण विरासत का स्मरण करना चाहिए। सदन में खामोश रहना विकल्प नहीं है। जनता का दिया दायित्व तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक प्रतिनिधि अपनी जनता के मुद्दों पर निर्भीकता से संवाद न करें।
नर्मदे हर।








