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वो एक आंसू और सबक: जब हंगल साहब संजीव कुमार को खोकर रो पड़े

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  • अखिलेश शुक्ला
अखिलेश शुक्ल

कल्पना कीजिए एक शाम की। लखनऊ का एक खूबसूरत बंगला। चाय की महक। मशहूर हस्तियों की खिलखिलाहट। और बीच में बैठे हैं एक शख्सियत, जिनकी मासूम सी मुस्कान और गहरी आंखों में एक पूरी फिल्म इंडस्ट्री की दास्तान समाई हुई है – ए.के. हंगल। यह वो दौर था जब उनकी दोस्ती एक बहादुर आर्मी अफसर से थी, जिन्होंने बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी। माहौल खुशनुमा था। लेकिन किसे पता था कि अगले ही पल, एक खबर उस जश्न के माहौल को सन्नाटे में बदल देगी।

“संजीव कुमार नहीं रहे।”

यह कहना गलत नहीं होगा कि उस पल हंगल साहब की दुनिया थम सी गई होगी। अविश्वास, सदमा, और फिर वो आंसू… जो एक गुरु का अपने शिष्य के लिए थे। वो आंसू सिर्फ एक ना रहने वाले की कमी के नहीं थे। वो एक ऐसे रिश्ते की कहानी कह रहे थे, जो स्टेज की रंगत से शुरू होकर फ़िल्मी पर्दे की चकाचौंध तक पहुंचा था। वो एक ऐसे सफर की दास्तान थे, जहां एक गुरु ने एक युवा में छिपे ‘आर्टिस्ट’ को पहचाना था।

वो पहला रोल: बूढ़ा आदमी बनने का विरोध

कहानी शुरू होती है एक नाटक से। युवा संजीव कुमार (तब हरिहर जैरी) हंगल साहब के स्टूडेंट थे। हंगल साहब ने उन्हें एक नाटक में पहला मौका दिया, लेकिन वो रोल था एक बूढ़े आदमी का! एक युवा, जो सपने देखता हो कि वो हीरो बनेगा, उसे बूढ़े का किरदार मिलना निराशाजनक लगा होगा।

संजीव कुमार का सवाल था, “आप मुझे ये बूढ़े आदमी का किरदार क्यों दे रहे हैं? मैं तो हीरो बनना चाहता हूं।”यहीं पर हंगल साहब का वो जवाब आया, जो शायद हर कलाकार और हर इंसान के लिए एक सबक है। उन्होंने कहा, “हीरो तो कोई भी बन जाता है। मज़ा तो तब है जब तुम हीरो नहीं, एक्टर बनो। और अगर तुम बढ़िया एक्टर बन गए तो हीरो बनने से भी तुम्हें कोई नहीं रोक सकता।”

ये सिर्फ एक वाक्य नहीं था; ये एक फिलॉसफी थी। ये कला के प्रति समर्पण, ईमानदारी और सच्ची महानता की परिभाषा थी। हंगल साहब ने संजीव कुमार को सिखाया कि असली कामयाबी ‘स्टार’ बनने में नहीं, बल्कि एक ‘कलाकार’ बनने में है। और इतिहास गवाह है कि संजीव कुमार ने इस सबक को कितनी शिद्दत से आत्मसात किया। वो न सिर्फ एक बेहतरीन एक्टर बने, बल्कि अपने दमदार अभिनय से हीरो की परिभाषा भी बदल डाली।

एक शिष्य का सम्मान: “मैं हंगल साहब की वजह से हूं”

सफलता की बुलंदियों पर पहुंचने के बाद भी संजीव कुमार कभी अपने गुरु को नहीं भूले। तबस्सुम के मशहूर शो ‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’ में उन्होंने खुलकर कहा, “वो जो कुछ भी बने, हंगल साहब की वजह से बने।”

इससे बड़ा सम्मान एक गुरु के लिए और क्या हो सकता है? जिस शख्स ने आपको रास्ता दिखाया, सफलता के शिखर पर पहुंचकर भी उसे याद रखना और उसे श्रेय देना… यही तो सच्ची सीख और नम्रता है। सबसे खूबसूरत बात यह है कि हंगल साहब ने वह इंटरव्यू देखा था और उन्हें अपने शिष्य पर बेहद गर्व महसूस हुआ था। यह दो महान कलाकारों के बीच का वह अटूट बंधन था, जो समय और सफलता से परे था।

नवंबर की वो काली शाम: एक गुरु का दिल टूटना

6 नवंबर 1985 की वो शाम हंगल साहब के लिए कभी न भूलने वाली थी। दोस्तों के बीच खुशियां मनाने का वक्त अचानक सिसकियों में बदल गया। संजीव कुमार के जाने की खबर ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। वो इतने दुखी हुए कि होटल लौट आए, खाना तक नहीं खाया और अगले दिन की शूटिंग से इनकार कर दिया।

यहां सिर्फ एक सेलिब्रिटी की दूसरे की मौत पर दुख की कहानी नहीं है। यह एक पिता का अपने बेटे को खोने जैसा दुख था। यह एक शिल्पकार का अपनी सबसे बेहतरीन कृति को खोने का गम था। उन आंसूओं में एक गुरु का सारा प्यार, गर्व और उसकी सारी यादें समाई हुई थीं।

हंगल साहब: सिर्फ एक एक्टर नहीं, एक जिंदगी

इस दुखद घटना के बावजूद, ए.के. हंगल की अपनी जिंदगी की कहानी भी कम शानदार नहीं है। वे सिर्फ एक एक्टर नहीं थे; वे एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने देश के लिए लड़ाई लड़ी। विभाजन का दंश झेला। टेलर का काम करके गुजर-बसर की। और फिल्मों में उन्होंने एंट्री तब की जब उम्र का पड़ाव रिटायरमेंट का होता है।

उनपर प्रतिबंध भी रहा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। ‘शोले’ का ‘रहीम चाचा’ हो, ‘सत्ते पे सत्ता’ का कोमल दिल वाला पिता, या फिर ‘अमर प्रेम’ का मास्टर जी – उन्होंने हर किरदार को जीवंत कर दिया। उनकी जिंदगी खुद एक सबक है – सपने देखने और उन्हें पूरा करने की कोई उम्र नहीं होती।

आज के दौर के लिए एक सबक

आज के दौर में, जहां ओवरनाइट स्टारडम और फेम की चकाचौंध है, हंगल और संजीव कुमार की यह कहानी एक ठहराव और सोचने का मौका देती है। क्या हम ‘हीरो’ बनने की होड़ में ‘कलाकार’ बनना भूल तो नहीं रहे? क्या हम उस गुरु-शिष्य की परंपरा और सम्मान को खोते जा रहे हैं?

निष्कर्ष

यह कहानी हमें याद दिलाती है कि असली कामयाबी चमक-दमक में नहीं, बल्कि अपने काम की ईमानदारी में है। रिश्तों की गहराई में है। और सबसे बड़ी बात, यह बताती है कि एक अच्छा शिक्षक या मेंटर किसी की जिंदगी को कैसे बदल सकता है।

25 अगस्त, हंगल साहब की पुण्यतिथि थी। उन्हें याद करना सिर्फ एक एक्टर को याद करना नहीं है। यह उन सभी मूल्यों को याद करना है, जिन्हें उन्होंने अपनी जिंदगी और अपनी कला के जरिए हमें दिया – संघर्ष, समर्पण, नम्रता और इंसानियत।

तो अगली बार जब आप ‘शोले’ देखें और रहीम चाचा को अपना डायलॉग बोलते हुए सुनें, तो याद कीजिएगा उस शख्सियत को, जिसने न सिर्फ एक मासूम किरदार को जीवंत किया, बल्कि एक ऐसे दिग्गज कलाकार को गढ़ा, जिसने हिंदी सिनेमा पर एक अमिट छाप छोड़ी। क्योंकि कला अमर होती है… और ऐसे रिश्ते भी।

उनके जाने पर क्या आप भी कहेंगे – “इतना सन्नाटा क्यों है भाई” (शोले में हंगल साहब का प्रसिद्ध डायलॉग) 

अखिलेश शुक्ला

सेवा निवृत्त प्राचार्य, लेखक, ब्लॉगर

Rohit Nage

Rohit Nage has 30 years' experience in the field of journalism. He has vast experience of writing articles, news story, sports news, political news.

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