विश्वामित्र-दशरथ संवाद और ताड़का वध के मंचन ने बांधे रखा दर्शकों को

Post by: Rohit Nage

  • – आचार संहिता के कारण शाम 7 से रात 10 बजे तक हो रहा रामलीला का मंचन

इटारसी। श्रीरामलीला (Shri Ramleela) एवं दशहरा महोत्सव (Dussehra Mahotsav) का आयोजन शहर में दो स्थानों गांधी मैदान (Gandhi Maidan)और पुरानी इटारसी (Old Itarsi) के वीर सावरकर मैदान (Veer Savarkar Maidan) पर चल रहा है। चुनाव आचार संहिता के कारण रामलीला मंचन शाम को 7 से रात 10 बजे तक ही किया जा रहा है। बीती रात गांधी मैदान में श्री बालकृष्ण लीला संस्थान वृंदावन (Shri Balkrishna Leela Sansthan Vrindavan) के कलाकारों ने श्रीराम जन्म (Shri Ram Janam), विश्वामित्र (Vishwamitra) का श्रीराम (Shri Ram) और लक्ष्मण (Laxman) का अपने यज्ञ को बचाने ले जाने और ताड़का व अन्य राक्षकों का अंत करने का मंचन किया गया।

शाम को गणेश पूजन (Ganesh Pujan) और श्रीराम दरबार की आरती नगर पालिका के कार्यालय अधीक्षक संजय सोहनी (Sanjay Sohni), सब इंजीनियर मुकेश जैन (Mukesh Jain), कमलकांत बडग़ोती (Kamalkant Badgoti), जगदीश पटेल (Jagdish Patel), अजय यादव (Ajay Yadav), रवि सिंह (Ravi Singh), ठेकेदार संजीव अग्रवाल (Sanjeev Aggarwal), सुबोध सोनी (Subodh Soni), सिद्धार्थ गायकवाड़ (Siddharth Gaikwad) सहित अन्य ने करके शुभारंभ कराया। मुनि विश्वामित्र और दशरथ के बीच संवाद के दौरान श्रोता मंत्रमुग्ध रहे। जब दशरथ अपने सुकुमारों को भयानक राक्षसों से युद्ध के लिए भेजने में असमर्थ होते हैं तो विश्वासमित्र उन्हें समझाते हैं कि महाराज! आप पुत्र के मोह को अपने कर्तव्य के बीच मत आने दीजिए। पराक्रमी श्रीराम क्या हैं, इस बात को मैं भली-भांति जानता हूं। महातेजस्वी वशिष्ठ जी व अन्य तपस्वी भी उस सत्य को जानते हैं। अत: आप कृपया शीघ्रता कीजिए, ताकि मेरे यज्ञ का समय बीत न जाए।

अपने मन से शोक और चिंता को हटाकर आप श्रीराम को मेरे साथ जाने की अनुमति दीजिए। महर्षि विश्वामित्र के ऐसे वचन सुनकर महाराज दशरथ को अतीव दु:ख हुआ। पुत्र वियोग की आशंका से पीडि़त होकर वे कांप उठे। वे दु:खी स्वर में महर्षि विश्वामित्र से बोले, राक्षस तो छल कपट से युद्ध करते हैं। लेकिन मेरा राम अभी सोलह वर्षों का भी नहीं हुआ है। वह अभी युद्ध-कला में निपुण नहीं हुआ है और न ही अस्त्र-शस्त्र चलाना भली भांति जानता है। इसलिए वह राक्षसों से लडऩे के लिए किसी भी प्रकार से उपयुक्त नहीं है। मुझे इस बुढ़ापे में बड़ी कठिनाई से पुत्र प्राप्ति हुई है। राम मेरे चारों पुत्रों में सबसे बड़ा है और उस पर मेरा प्रेम भी सबसे अधिक है। उससे वियोग हो जाने पर मैं दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता। इसलिए आप राम को न ले जाइए।

दशरथ की ऐसी बातों को सुनकर महर्षि विश्वामित्र बहुत क्रोधित हो गए। वे बोले, राजन! पहले तुमने स्वयं ही मुझे मुंह मांगी वस्तु देने की प्रतिज्ञा की और अब तुम स्वयं ही उससे पीछे हट रहे हो। तुम्हें यदि ऐसा ही व्यवहार उचित लगता है, तो मैं जैसा आया था, वैसा ही वापस लौट जाता हूं। उनके इस क्रोध को देखकर सभी लोग भयभीत हो गए। यह देखकर अब महर्षि वशिष्ठ आगे बढ़े और उन्होंने दशरथ को समझाते हुए कहा, महाराज! आप महान इक्ष्वाकु वंश में जन्मे हैं और आपकी धर्मपरायणता सारे संसार में प्रसिद्ध है। अत: आप अपने धर्म का पालन कीजिए और अधर्म का भार अपने सिर पर न उठाइए। आप निश्चिंत होकर श्रीराम को महर्षि विश्वामित्र के साथ भेज दीजिए।

श्रीराम अभी अस्त्र-विद्या जानते हों या न जानते हों, किंतु महर्षि के होते हुए वे राक्षस श्रीराम का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। यह बातें सुनकर दशरथ जी की चिंता दूर हो गई और उनका मन प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने स्वयं ही राम और लक्ष्मण को अपने पास बुलाया। फिर माता कौशल्या, पिता दशरथ और पुरोहित वसिष्ठ जी ने स्वस्ति वाचन किया और यात्रा की सफलता के लिए श्रीराम को मंगलसूचक मंत्रों से अभिमंत्रित किया गया। इसके बाद दशरथ जी ने श्रीराम को प्रसन्नतापूर्वक महर्षि विश्वामित्र को सौंप दिया। आगे-आगे विश्वामित्र, उनके पीछे श्रीराम व उनके पीछे सुमित्रानंदन लक्ष्मण चल पड़े। रास्ते में श्रीराम और लक्ष्मण ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों का अंत करते हैं।

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