महाराष्ट्रीयन ब्राहम्ण परिवार में माता महालक्ष्मी की विशेष पूजा भाद्र पक्ष में शुक्ल पक्ष की सप्तमी से नवमी तक की जाती है। इस पूजा में दो देवियां होती है जो ज्येष्ठा और कनिष्का गौरी या अन्नपूर्णा और लक्ष्मी के नाम से जानी जाती हैं इनके साथ इनके बच्चे यानि मुलगा मुलगी की भी स्थापना की जाती है। यदि हम इसकी पौराणिक कथा में जाये तो दोनों देवियां मायके आती हैं जहां इनका स्वागत, सत्कार, सम्मान होता है।
इटारसी शहर में रहने वाले एक महाराष्ट्रीयन ब्राहम्ण परिवार से मिलिंद रोंघे ने इस पूजा के बारे में जानकारी हुए बताया कि इस पूजा में स्थापित महालक्ष्मी की स्थापना को लेकर ब्राहम्ण मराठी समाज में दो प्रकार से की जाती है जिसमें कोंकडस्थ लोग नदी के 7 कंकड लाकर उनको माता का स्वरूप मानकर उनकी स्थापना करते हैं और पूजा करते हैं। वहीं देषस्थ लोग पीतल या मिटटी की खडी प्रतिमा जो कि नववारी साडी पहने और 16 प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित होती है, की स्थापना करते हैं। कहीं कहीं सिर्फ देवी जी के चेहरों की ही पूजा होती है। हमारे यहां पिछले करीब 80 सालों यह पूजा हो रही हैं। हमारे यहां देवी जी के पीतल के मुखौटे पुस्तैनी हैं जो पिछले 80 सालों से हैं। इनके धड पिछले 70 सालों से है क्योंकि रखे रखे खराब हो जाते हैं। इसलिए नए धड लाने होते हैं जो कि महाराष्ट्र में आसानी से बने बनाएं मिलते हैं। ये धड कपडे से बने होते हैं। देवियों की स्थापना में स्टील की कोठियां जिसमें गेहूं, चावल, 5 पेडे और सिक्का होते है जिस पर देवियों को स्थापित किया जाता है।
स्थापना के विषय में जानकारी देते हुए श्रीमती नीलिमा रोंघे ने बताया कि महालक्ष्मी पूजा का तीन दिन का उत्सव होता है। पहले दिन सप्तमी पर माता जी की स्थापना के दौरान विशेष पूजन होता है। दूसरे दिन माता जी की ओली भराई का कार्यक्रम होता है जिसमें अनाज, ड्रायफूडस के साथ ही सारे पकवान बनाए जाते हैं जिसमें 16 प्रकार की चटनियां, पूरन पूडी, सब्जी, पपडियां गुजिया चढाए जाते हैं। यह सारे पकवान घर की रसोई में ही बनाए जाते हैं और उस दौरान महिलाएं किचिन से बाहर नहीं आती। इस दिन परिवार के अलावा रिश्तेदार और संबंधियों को भी प्रसादी के रूप में भोजन कराया जाता है। तीसरे दिन यानि नवमी पर दोनों देवियों एवं बच्चों का विसर्जन होता। इस विसर्जन के पूर्व दही भात और गुजिया का भोग विशेष रूप से लगाया जाता है।