– डॉ हंसा कमलेश
सड़को पर बहता मजदूरों का सैलाब जो मीडिया दिखा रहा है, वो सचमुच है या कोई फिल्म के सेट पर वीएफएक्स से बनाया गया एक दृश्य। जो न्यूज चैनल देखो, चैनल यह दृश्य बता-बता कर कहीं बहस का एपिसोड चला रहे हैं तो कहीं राजनेता नैतिक जिम्मेदारी का बवाल मचा रहे हैं, समाज की स्थिति जड़वत हो गई है।
कोविड-19 से संक्रमित बीमारी अब एक तरफ हो गई और हमारी बीमार व्यवस्था का विकृत रूप विकराल हो गया। पिता दूध के लिए भटकता रहा और बेटा तड़प तड़प कर चल बसा। मां के कफन को आंचल समझकर डेढ़ साल का रहमत खेलता रहा। मानवीय संवेदना चीख चीख कर शून्य हो गई। सच है पराई पीर में कहां इतनी ताकत है कि नियति थरथराये और आंसू जमीन पर गिर जाए। अब तो क्रन्दन में भी वह पीड़ा नहीं बची की सांसो की आद्रता का बूंद – बूंद रिसते अर्ध्य की नमी कहीं महसूस हो जाए।
देश का मजदूर अपने ही देश में प्रवासी हो गया। वह घर से निकला घर की तलाश में और अंतहीन सफर में खो गया। थकान ,भुखमरी, पुलिस की क्रूरता, सड़क हादसे, खुदकुशी और इलाज के अभाव में देश की नींव के निर्माताओं की सांसें उखड़ गई और व्यवस्था एक प्रश्न चिन्ह बन गई।
यह सच है जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तय है। गीता में कृष्ण भी यही कहते हैं “जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:” अर्थात ब्रह्मांड का अटल सत्य है कि जिस का भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। किंतु जिस तरह देश में अकाल मौत का तांडव मचा है, क्या वह भी अवश्यंभावी है। मेरी दृष्टि में तो बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि वेद भी समय से पूर्व मृत्यु से कहते हैं “मृत्यु मां पुरुष वधी “अर्थात हे मृत्यु तू पुरुष को समय से पूर्व मत मार, फिर हमारी व्यवस्थाएं क्यों सीधा मृत्यु से साक्षात्कार कर रही है।
बीमारी से मरना तो समझ में आता है। पर मजदूरों का यूं रेंग रेंग कर मरना समझ से परे है। अच्छा और बुरा, सही और गलत, गुण और दोष, न्याय और अन्याय जैसी परिभाषाओं को परिभाषित करके नीतिशास्त्र मानवीय नैतिकता के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करता है। नीति शास्त्र जिन नैतिक नियमों की खोज करता है वे स्वयं मनुष्य की मूल चेतना में निहित है, पर आज मनुष्य की मूल चेतना भौतिकवाद की शिकार हो गई हैऔर आचार शास्त्र कृत्रिम हो गया है। मेटा नीति शास्त्र किताबों के शब्दों में सीमित हो गया है। और मान दंडक नीति शास्त्र बहस का विषय हो गया है। नैतिक, यथार्थवाद कहीं दिखाई ही नहीं देता है।
ट्रेनों का मजदूरों को लेकर कहीं से कहीं पहुंच जाना एक नहीं अनेकों सवालों को जन्म देता है। आज की परिस्थितियों में जर्मन दार्शनिक इमेनुअल कांट का दृष्टिकोण उल्लेखनीय है कि “आंतरिक रुप से शुभ संकल्प ही शुभ कार्य है “, एक कार्य केवल तभी शुभ हो सकता है यदि उसके पीछे सिद्धांत हो कि नैतिक नियमों का पालन एक कर्तव्य की तरह किए जाएं।
आज प्रशासन, समाज एवं जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए केवल एक ही महत्वपूर्ण नैतिक कार्य है कि वह मजदूरों को लेकर फिल्मी डायलॉग की तरह व्यवहार ना करें। यथार्थ के धरातल पर नैतिक कर्तव्य करें।
याद रखना होगा, परिवार ने समाज बनाया और समाज ने गांव, गांव ने राज्य और राज्य ने देश की रचना की है। आज वह परिवार जो गांव की आत्मा है सड़कों पर सिसक रहा है।गांव की चेतना को चैतन्य रखना ही होगा पूरी शिद्दत के साथ।
डॉ हंसा कमलेश
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