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विध्न विनाशक की साधना के जनजागरण के महापर्व का मर्म

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फिर कोरोना आपदा के साये में श्री गणेशोत्सव

*प्रसंग-वश-चंद्रकांत अग्रवाल*
एक बार फिर विगत वर्ष की तरह विध्न विनाशक के श्री गणेशोत्सव को कोरोना की तीसरी लहर के साये में मनाने को बाध्य हैं हम सब। इस महोत्सव को जन जागरण का महापर्व माना जाता है देश में व विदेशों में भी। अतः आज मुझे अनायास ही जनजागरण हेतु विगत वर्ष का एक चिंतन सत्संग प्रसंग सहज ही याद आ गया जो जीवन प्रबंधन गुरू पंडित विजयशंकर मेहता के एक व्याख्यान सत्र का था। क्योंकि गणेशोत्सव में ही यदि सत्य का साक्षात्कार, उसके लिए जन जागरण न हो तो फिर कैसा महोत्सव रह जायेगा वह। सत्य जे बड़ा धर्म, सत्य से बड़ी साधना, सत्य से बड़ा तप तो कोई हो भी नहीं सकता। तीन दशक तक एक दैनिक में पत्रकार रहने के बाद एक चिंतक व फिर अध्यात्म के क्षेत्र में यहां तक के सफर में श्री मेहता ने उस ज्ञान सत्र में स्वयं स्वीकारा था कि पत्रकारिता व अध्यात्म दोनों की भाव-भूमि में काफी फर्क होता हैं। मेरा मत भी यही है।

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मुझे भी 35 साल से अधिक हो गए, पत्रकारिता करते करते। पत्रकारिता में जहां सत्य का अन्वेषण कर उसको ओजस्विता के साथ प्रस्तुत किया जाता हैं, वहीं अध्यात्म में सत्य को आत्मसात कर उसका प्रकटीकरण करना होता है। पत्रकारिता में आक्रोश भी होता हैं पर अध्यात्म में इसके लिए कोई जगह नहीं होती। संयोग की बात हैं कि इटारसी से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक आजादी के पूर्व से देश भर में धूमधाम से मनाए जाने वाले गणेशोत्सव को जन-जागरण का राष्ट्रीय महोत्सव बनाकर ही लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने प्रारंभ कराया था। तब यह जन-जागरण उत्सव देश की आजादी के लिए, राष्ट्र प्रेम,राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय चरित्र व राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए मनाया जाता था। आजादी के बाद धीरे-धीरे कब इसमें हिन्दुत्व का तत्व आ गया, चमक-दमक, दिखावे का फैशन छा गया और कब यह राष्ट्रीय से धार्मिक उत्सव बन गया इस देश की जनता व उसके जनप्रतिनिधियों को पता ही नहीं चला। सब सोते रहे तो धीरे- धीरे जन-जागरण का भाव भी खोता चला गया। हालांकि अपवाद सदैव रहे व आज भी हैं ,देश भर में व हमारे जिले व शहर में भी। जब हम कई गणेश मंडपों में आज भी राष्ट्रीय व सामाजिक समस्याओं व त्रासदियों पर प्रहार करती,कटाक्ष करतीं झांकियां देखते हैं। पर उनमें ग्लेमर की चमक-दमक अधिक होती है, भाव-प्रवणता से प्रेरणा देने की इच्छाशक्ति कम ही दिखती है।

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गणेश पुराण में श्रीमद्भगवद्गीता की तरह ही 11 अध्यायों की गणेश गीता भी है। जिसमे श्री गणेश हमें बताते हैं कि यदि हमारी दृष्टि मंगलपूर्ण रहेगी तो सृष्टि भी मंगलमय ही लगेगी। श्री गणेश एकमात्र ऐसे गृहस्थ देवता हैं जिनकी गृहस्थी में किसी भी विवाद या विषाद के लिए कोई जगह ही नहीं है। उनकी दो पत्नियां रिद्धि व सिद्धि व दो पुत्र हैं शुभ व लाभ।उनके गजमुख, वक्रतुंड, एकदन्त व लम्बोदर स्वरूप तो दिव्य हैं ही, उनकी चारों भुजाओं में भी पुरुषार्थ चातुष्टय का सार छुपा है। चारों भुजाओं में पाश राग का, अंकुश क्रोध का, नाश करने वाला है।अभ्यहस्त सम्पूर्ण भयों से निर्भय करता है तो वरदहस्त भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करता है। वे जल तत्व के अभिपति होने से हमें सिखाते हैं कि जिसका जीवन जल की तरह तरल, सरल, निर्मल, व सतत गतिमान होता है, वही सबको तृप्त कर पाता है। श्री गणेश को अत्यंत दयालु व संवेदनशील देवता मानता है, हिन्दू समाज प्रारंभ से ही। लिहाजा धीरे-धीरे श्री गणेश के प्रति अपनी भक्ति व समर्पण का प्रकटीकरण बढ़ता चला गया। पर श्री गणेश के अवतरण के, उनकी जीवन – लीलाओं से दिए जाने वाले सामाजिक व राष्ट्रीय संदेशों से हम दूर होते चले गए।

मैं नहीं जानता कि तिलक ने जन- जागरण के अपने राष्ट्रीय-उत्सव के लिए हिन्दुओं के 33 कोटि देवी-देवताओं में से श्री गणेश को ही इस जन-जागरण उत्सव का नायक क्यों बनाया था। पर विनायक जो श्री गणेश का ही एक नाम है, को नायक बनाने के वास्तव में कई सार्थक कारण थे, एक सार्थक-चिंतन था व इसका मर्म भी बहुत स्पष्ट था। श्री गणेश का अवतरण चरित्र, ऐसा था कि उसके कारण ही वे प्रथम-पूज्य देवता बन गए। उन्होंने अपने माता-पिता को ही संपूर्ण पृथ्वी की सत्ता माना था। अत: जब पृथ्वी का एक चक्कर लगाकर सबसे पहले आने वाले देव को प्रथम-पूज्य बनाने की परीक्षा हुई तो वे अपने माता-पिता के निवास कैलाश पर्वत की परिक्रमा कर सबसे पहले पहुंच गए व प्रथम-पूज्य बन गए ,क्योकि पृथ्वी भी किसी के भी माता-पिता से बड़ी कैसे हो सकती है? उनके इस सवाल का जबाब किसी के पास न था। श्री मेहता द्वारा अपनी दैनिक व्यस्त दिनचर्या हेतु जीवन प्रबंधन के जो चार सूत्र बताये गये उनमें से एक अहम सूत्र पारिवारिक जीवन में माता-पिता,पति-पत्नि और बच्चों के साथ पूरी संवेदनशीलता के साथ प्रेम व सम्मान पूर्वक रहने का ही था। त्रेता युग में श्रीराम की मर्यादा भी यहां साफ-साफ रेखांकित होती है। जिन्होंने पिता के वचन की लाज रखने सिंहासन छोडक़र 14 साल का वनवास सहर्ष स्वीकारा। फिर श्री गणेश को हिन्दू धर्म-शास्त्र बुद्धि का देवता भी मानता हैं। श्री गणेश ने हजारों दुष्टों/ दैत्यों का संहार शस्त्र उठाकर किया। यही कार्य श्री कृष्ण ने बिना शस्त्र उठाए किया। श्री गणेश के बुद्धि-चातुर्य की तुलना उनके धर्म के मामा श्री कृष्ण की लीलाओं से सहज ही की जा सकती हैं, क्योंकि दोनों में कई समानताएं मिलती है। पर पहले श्री गणेश के जीवन में माता के आदेश व माता के सम्मान की रक्षार्थं अपने पिता के हाथों अपने मस्तक कटवाने का त्याग उनको श्री राम के करीब ले जाता है तो उसके बाद ही उनके जीवन में श्री कृष्ण की सी चपलता, चतुरता के दर्शन होते हैं। उनके चिंतन में श्रीराम की मर्यादा,श्रीकृष्ण की विलक्षण नीति श्री गणेश की बौद्धिकता,श्री हनुमान के सेवा व समर्पण के भाव,आदि वह सभी कुछ,इस अंदाज में था जो हमारे व्यवहारिक जीवन में सहजता से आत्मसात किया जा सके।
अत: श्रीगणेशोत्सव के अवसर पर मुझे लगा कि आज के अपने कालम के केंद्र में मैं श्रीगणेश को ही विराजमान करके कलम चलाऊॅँ । वैसे भी हमारे देश में जन-जागरण के किसी बड़े राष्ट्रीय आंदोलन के नायक तो विनायक ही रहे हैं। अत: श्री गणेश प्रथम पूज्य देव की तरह मेरे आज के कॉलम के नायक श्री गणेश सहज ही बन गए। श्री मेहता ने सामाजिक जीवन के अपने दूसरे सूत्र में स्पष्ट किया भी था कि भले ही हम अपनी सुविधाभोगिता के चलते किसी राष्ट्र हितैषी आंदोलन का हिस्सा न बनें पर अपने व्यक्तिगत जीवन से तो भ्रष्टाचार और बेईमानी को निकालकर बाहर करें। इसके बाद ईमानदारी व परिश्रम करने पर भी यदि अपेक्षित सफलता नहीं मिलती हैं तो परमात्मा पर यह विश्वास रखें कि वह इसे एक दिन फलित जरूर करेगा। भले ही किसी भी दूसरे रूप में करें। जीवन को समग्र रूप से देखकर ही जीवन की सफलता का चिंतन करना चाहिए। यहां चिंतन सिर्फ सफलता का नहीं बल्कि सार्थक-सफलता का होना चाहिए। दोनो में जमीन-आसमान का अंतर होता है। उदाहरणार्थ जो जनप्रतिनिधि/ नेता आम आदमी को न्याय न दिला पाए उसकी राजनीति तो दुष्टता ही कही जाएगी। जो पूंजीपति अपनी संपदा का एक छोटा सा हिस्सा भी कमजोर /असहाय/ शोषित वर्ग का जीवन खुशहाल बनाने में खर्च न करें उसकी सम्पन्नता तो दीनता ही कही जाएगी। दोहरा चरित्र रखकर वास्तव में हम अपने आपको ही धोखा देते हैं। अहसास तब होता हैं जब परिणाम भुगतना पड़ता हैं। पाप और पुण्य दो ऐसे बीज हैं जो कभी भी नष्ट नहीं होते।
श्री मेहता ने कहा कि पाप को पुण्य से काटा भी नही जा सकता हैं। पाप का बीज तो फलित होगा ही ,पर पुण्य का बीज भी अलग से फलित होगा। श्री मेहता ने काफी तीखे शब्दों में कहा था कि कभी जनसेवा,देशप्रेम, व देशभक्ति का पर्याय मानी जाने वाली राजनीति आज गाली की तरह कही सुनी जा रही हैं। समाजसेवा को पाखंड के रूप में संबोधित किया जाने लगा हैं। क्षमा करें,अध्यात्म व धर्म में भी आज पाखंड चरमोत्कर्ष पर हैं। व्यास पीठ पर बैठकर या मंच से ज्ञान चरित्र, संस्कार की सीख देने वाले हजारों नामधारी पाखंडी भी हमारे राष्ट्रीय चरित्र को खोखला कर रहें हैं। इनमें से कुछ का व्यक्तिगत जीवन तो जब मैने एक पत्रकार के रूप में इटारसी से ले कर देश भर में करीब से देखा तो लगा कि सत्संग व ज्ञान सत्रों का अध्यात्म भी राजनीति की तरह दोहरे चरित्र का हो गया हैं। समृद्धि पायी तो शांति खो दी, प्रतिष्ठा कमायी तो चरित्र खो गया,विकास के नाम पर हमने बाजार बनाये तो मूल्य खो गये,तकनीक के विकास के अनुक्रम में हमने सुपर कम्प्यूटर तक बना लिया पर अपना ही परिवार नहीं चला पा रहें। हमारे व्यक्तित्व का आकार बढ़ गया पर संस्कार पीछे छूट गये। देश की तीन सबसे बड़ी समस्याएं भ्रष्टाचार,कुसंस्कार व बिखरते परिवार की हैं। बस यही फर्क आ गया है तिलक के शुरू किए गणेशोत्सव व आज के गणेशोत्सव में भी। मेरे एक पिछले कॉलम की हैडिंग ही थी कि आज के दौर में तो श्रीकृष्ण ही सार्थक जीवन के नायक हो सकते हैं। मेरे प्रत्येक चिंतन में श्रीकृष्ण व श्रीराधा सहज ही केंद्र में आ जाते हैं पर श्रीकृष्ण चरित्र को समझना तो बहुत दूर की बात हें, श्री राधे अर्थात राधाजी का अलौकिक अवतरण, उनका श्री कृष्ण के चरणों में निष्काम प्रेम, उनका प्रेम के लिए त्याग का चरमोत्कर्ष, उनका जीवन दर्शन समझ पाना भी श्री कृष्ण-कृपा के बिना संभव नहीं, किसी के लिए भी। और श्री कृष्ण कृपा के लिए श्री राम, श्री गणेश व श्री हनुमान के त्याग व मर्यादा को जीवन में आत्मसात करना जरूरी है। क्योंकि तभी हमारी भक्ति व हमारा प्रेम निष्काम हो पाएगा और तभी मिल पाएगी हमें श्री कृष्ण-कृपा ।
श्री मेहता भी अपने व्यवसायिक जीवन के तीसरे सूत्र में ऐसी ही निष्कामता को रेखांकित करते हैं, जिसमें हमारे भीतर से कर्ता का भाव समाप्त हो जाये व कर्म के फल की कोई चिंता व चिंतन ही न रहे। श्री मेहता के जीवन प्रबंधन के सबसे महत्वपूर्ण सूत्र निजी जीवन को जीने की कला का विकास भी इसी निष्कामता से प्रारंभ होता हैं क्योंकि तभी शरीर से आत्मा की और की हमारी सार्थक जीवन यात्रा प्रारंभ होती हैं। जो आत्मा के साथ जीना सीख लेता हैं वह प्रतिकूलताओं के चरमोत्कर्ष में भी सबसे सुखी रहता हैं। पर इसके लिए हमें अपने मन को जिसे उन्होनें एक आवारा कुत्ते की उपमा दी से मुक्त होना पड़ेगा। मन से मुक्त होना अर्थात विचारों से मुक्त होना और वास्तव मेेंं ध्यान अर्थात मेडिटेशन की सबसे सरल परिभाषा भी यही हैं। वास्तव में मन से मुक्त होने के बाद ही हमारा कोई अस्तित्व होता है। अन्यथा बाहर से तो हम एक दूसरे को जिस रूप में भी देखते हैंं वह सिर्फ व्यक्तित्व होता हैं। श्री मेहता ने कहा था कि बुढ़ापे में ध्यान के अतिरिक्त सुख व शांति का और कोई भी रास्ता नही। अत: समाज को इस मामले में जोरदार पहल करनी चाहिए। सरकारी योजनाओं से तो सिर्फ सरकार का ही भला होता हैं। हमें हर नागरिक को उसकी समाज,परिवार व देश के प्रति जिम्मेदारी के भाव को आत्मसात करना होगा, तभी भारत विश्व में सिरमोर हो पायेगा। उन्होनें कहा कि अच्छे दिन आयेंगें,इससे इनकार नहीं करता पर पारिवारिक विघटन,कलह की काली रातों की दस्तक भी हमें सुननी होगी। एक सर्वे के अनुसार पन्द्रह वर्ष बाद विकास के नाम पर भले ही हम दुनिया में सबसे आगे हो जायें पर हमारी वास्तविक समृद्धि जो हमारी पारिवारिक व्यवस्था हैं वह ध्वस्त होने के संकेत भी स्पष्ट दिख रहे हैं।

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एक सर्वे के अनुसार अगले कुछ सालों के बाद देश में बुजुर्गों की संख्या 20 करोड़ हो जायेगी। सरकार व समाज के लोगों को इनके सुख शांति के लिए अभी से पहल करनी होगी। आर्थिक सम्पन्नता को ही सार्थक सम्पन्नता समझने की मृगतृष्णा ही वास्तव में हमारे कई दुखों का मूल कारण है। और हमारी यह अज्ञानता,हमारी यह नासमझी सिर्फ इसलिए हमें एक निरर्थक जीवन के कुंए का मेंढक़ बनाए हुए है क्योंकि हम सिर्फ एक शरीर के रूप में ही जी रहें हैं। मेरे व्यक्तिगत चिंतन से तो मुझे यही लगता है कि कलयुग में जीने की कला हमें श्री गणेश व श्री कृष्ण ही सिखाते हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि यदि आज श्री गणेश या श्री कृष्ण का अवतार एक दिन के लिए भी हो जाता तो वे भ्रष्टाचार, काले-धन व काले-अंग्रेजों का संहार तो बिना शस्त्र उठाए ही कर देते। देश की आम जनता को भी श्री गणेश व श्री कृष्ण के आदर्शों को आत्मसात कर,अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से भ्रष्टाचार को जड़ से उखाडऩे के लिए व अपने पारिवारिक व निजी जीवन को बर्बाद होने से बचाने के लिए अब संकल्पित हो एकजुट होकर संक्रिय होना ही पड़ेगा। जन जागरण के लिए प्रारंभ हुए श्री गणेशोत्सव को मनाना भी तभी अब हम सबके लिए सार्थक हो पाएगा। अन्यथा हम कोरोना से ही दिवंगत हुए शायर राहत इंदौरी के इन दो शेरों को ही दोहराते दिखेंगे-
*बात क्या है प्यास ज्यादा तेज लगती है यहां*,
*लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुआं।*
*इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात*,
*अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां।*
श्री गणेशोत्सव के इस बार के कोरोना के साये में हो रहे जनजागरण के इस राष्ट्रीय महोत्सव पर जो इस बार भी विगत वर्ष की तरह तीसरी लहर की आशंकाओं के चलते सार्वजनिक से लगभग पारिवारिक हो गया है, हमारी सुविधाभोगिता, हमारी संवेदनशून्यता, हमारी सामाजिक व राष्ट्रीय नपुंसकता की प्रतीक ये बंद खिड़कियां खुलें व देशभक्ति, देशप्रेम,सार्थक जीवन के प्रति लगाव,अपने परिवार व अपने स्वयं के निजी जीवन में सार्थक सुख व शांति की शीतल हवाओं के झोंके हमारे जीवन में देश,समाज व परिवार के प्रति श्रीराम की मर्यादा ,अन्याय के खिलाफ श्री गणेश के शौर्य ,अत्याचारियों व भ्रष्टाचारियों के खिलाफ श्री कृष्ण की कलाओं व श्री हनुमान के त्याग व समर्पण का पर्दापण करा सकें। सार्वजनिक गणेशोत्सव के कोलाहल से सर्वथा अलग इस बार अपने अपने घरों में श्री गणेश की भक्ति संग हम सब उनसे यह प्रार्थना करें कि देश व विश्व से कोरोना के महा विध्न का वे नाश करें क्योंकि उनका एक नाम विध्ननाशक भी है व कोरोना के विध्न को अपने परिवार से दूर रखने हम सोशल डिस्टनसिंग, मास्क व बार बार हाथों की सफाई साबुन व सेनेटाइजर से करने आदि के आत्म अनुशासन के साथ सम्पूर्ण गणेशोत्सव के दौरान आत्मचिंतन का ऐसा आत्म जागरण करें कि हमारा जीवन खुशहाल व सार्थक हो सके। गणेशोत्सव पर सभी, पाठकों को ऐसी ही शुभकामनाओं के साथ,जय श्री गणेश।
क्रमशः अगले कॉलम में हम बुद्धि के देवता श्री गणेश व विश्व गुरु व मेरे ईष्ट श्री कृष्ण की कृपा से अपने जीवन के महाभारत का आध्यात्मिक मर्म समझने का प्रयास करेंगे।

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चंद्रकांत अग्रवाल (Chandrakant Agrawal)

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