प्रसंग वश *पंकज पटेरिया : बहुत बह गया नर्मदा जी में पानी, देखते देखते आपातकाल को बीते 48 साल हो गए। कितना जोर जुर्म, मनमानी उस दौर में की गई, किस तरह लोकतंत्र का गला घोट कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पहले बिठाकर जनता को लाचार कर दिया जाता।
उस पर एक शेर का जिक्र “हाथ पीछे को बंधे हैं और मुंह पर ताले हैं, किस से कहें पैर का कांटा निकाल दो”, यही हालात थे आम जनता के।
शोर-शराबा से भरे चौक चौराहे सुनसान हो गए थे। होठों से हंसी खुशी रूठ गई थी। सब तरफ शासन प्रशासन के सिविल ड्रेस मुकर्रर किए गए पुलिस मैन जर्रे जर्रे पर घूमते रहते थे। खासतौर से हम अखबार वालों के आगे पीछे बल्कि आने जाने पर भी निगरानी रहती थी।
मैं उन दिनों नर्मदापुरम में राजधानी के एक बड़े अखबार का प्रमुख संवाददाता था। नर्मदा तट पर रोज उतरने वाली गाते गुनगुनाता भोर, जैसे गूंगी हो गई थी और शाम थकी हारी बीमार से बुझी बुझी उतरती। बड़ी हैरानी होती है यह कहते हुए मंदिरों में आरती के वक्त होने वाली श्रद्धालुओं की भीड़ भी सिमट गई थी।
अपने काम धंधे नौकरी के बाद लोग घरों में बंद हो जाते। किसी के बारे में कोई भी एनोनिमस कंप्लेंट कलेक्टर को कर देता था और बिना जांच-पड़ताल के उसे उठा ले लिया जाता था या दुकान के शटर गिरा दी जाती थी।
हम लोगों के घरों पर सुबह शाम पुलिस वाले डंडा ठोकते हाल-चाल जानने सुबह शाम दस्तक देते रहते थे। दिन में दो बार पीआरओ से लिखित निर्देश आते थे कैसी खबरें अखबारों को भेजी जाए। यह भी निर्देश था कि 4:00 बजे तक लेटर बॉक्स बाक्स डालना जाना चाहिए। फिर खबरों के सारे लिफाफे कलेक्ट्रेट में बनाई गई एक विशेष कमेटी के सामने रखे जाते थे।
जहाँ यह तय होता था कौन सी खबर अखबारों को भेजी जाए और कौन सी नहीं भेजी था। जरूरी कांट छांट भी उन में की जाती थी। सरकार के नजरिए से कोई खबर सरकार के खिलाफ होती तो रोक ली जाती थी और उस संवाददाता की क्लास भी ली जाती थी।
मुझे बहुत अच्छे से याद है मेरे सीनियर एक बहुत धाकड़ किस्म के पत्रकार स्वर्गीय कल्याण जैन थे। शहर में हो रही अपराधिक घटनाओं के प्रकाशन में उन्होंने अपने अंग्रेजी अखबार एक खबर भेजी थी जो दूसरे दिन लगी। इस हेडिंग से होशंगाबाद स्टमेड विद रेप एंड मर्डर।
बस फिर क्या था तात्कालिक टीआई जो हम लोगों के बहुत अच्छे मित्र थे, हमें गुप्त सूचना दी कि हम लोग शहर के बाहर चले जाएं और फिलहाल कोई खबरें ना भेजें। ऊपर से आर्डर मिला है ऐसे पत्रकारों को उठा लेना।
रोज चेतावनी मिलने के बाद और अपने अपने अखबारों से भी रोज निर्देश मिलने के बाद हम पत्रकार भी वही खबरें जस की तस अपने अखबारों को भेजते थे। जो पीआरो से मिलती थी। मैं कवि हूं, गोष्ठी आदि में जाता था।
टीआई साहब ने मुझसे आग्रह किया था गोष्ठी में न जाएं। 45, 50 साल पत्रकारिता करते हुए हो गये। आज खुले आसमान में सांस लेते हुए यकीन नहीं होता, कभी ऐसे भी दिनों से हमारी गुजर हुई है।