मूर्तिकला से मानव के संकट को दर्शाया रोहित प्रजापति ने

Post by: Manju Thakur

इटारसी। सतपुड़ा के घने जंगल उंघते अनमने जंगल, पं. भवानीप्रसाद मिश्र की इस कविता के अहसास करने अब जंगल के किसी महंगे रिसोर्ट या वन के बीच बनी किसी कुटिया में जाने की जरूरत नहीं रही। अब तो हजारों वाहनों की चीत्कार और लाखों मनुष्य की भीड़भाड़ वाले बाजार, मॉल, आलीशान कॉलोनियों की सड़कें दिन में भी सतपुड़़ा के जंगलों जैसी उंघती अनमनी दिखाई दे रही हैं।
वन्यप्राणियों के अस्तित्व बचाने के लिये एसी आडिटोरियम में चलने वाली कार्यशालाओं, सेमिनार को करने वाला मुनष्य आज खुद घरों की चारदीवारी में कैद होकर कोरोनावायरस के आक्रमण से अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश कर रहा है। दैहिक दूरी के साथ सामाजिक दूरी भी इस कदर हावी हो गई है कि पोषण देने वाले सब्जी, फल को छूने में करंट लगने सा खतरा दिख रहा है। चिडिय़ाघरों के पिंजड़ों में वन्यजीवों, पक्षियों को कैद कर मनोरंजन करने वाला मानव आज स्वयं घरों के पिंजड़ों में फडफ़ड़ा रहा हैं। इसके बाद भी सुरक्षा पर खतरा तो मंडरा ही रहा है।
इस स्थिति को माटीकला के क्षेत्र में अपनी राष्ट्रीय पहचान बना चुके आदिवासी अंचल केसला के रोहित प्रजापति ने कलाकृतियों के माध्यम से प्रकट किया है। ग्वालियर से फाइन आट्र्स से पीजी कर रहे रोहित ने अपनी मूर्तियों में मनुष्य को सिंह, लोमड़ी, हाथी आदि वन्यप्राणियों के सिर के साथ दर्शाया है। रोहित ने इसमें दिखाया है कि आज मुनष्य की स्थिति चिडिय़ाघर के इन प्राणियों की तरह हो गई है। वहीं खबरें आ रही है कि अनेक महानगरों की कॉलोनियों तथा व्यस्त रहने वाले मार्गों में ये प्राणी अपने कुनबे के साथ मनुष्यघर देखने निकल रहे हैं।

इनका कहना है…!
रोहित प्रजापति आदिवासी ग्राम केसला के निवासी हैं। घर की अत्यंत विषम परिस्थितियों में रहकर उत्कृष्ट विद्यालय के अध्ययन करने के बाद राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय ग्वालियर से फाइनआर्ट से पीजी कर रहे हैं। लॉकडाउन की स्थिति में ग्वालियर में अपने किराये के कमरे में ही रहते हुये आम लोगों तक प्रकृति का संदेश देने उन्होंने इन मूर्तियों का निर्माण किया है।
राजेश पाराशर, रोहित के स्कूली शिक्षक

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