*प्रसंग-वश-चंद्रकांत अग्रवाल*
आजकल देश के घर-घर में महाभारत सीरियल का प्रसारण देखा जा रहा है। पूरे परिवार द्वारा एक साथ बैठकर क्योंकि घरों के बाहर कोरोना का महाभारत चल रहा है। देश क्या लगभग संपूर्ण विश्व में। महाभारत के एक दृश्य में हस्तिनापुर के महामंत्री महात्मा विदुर भीष्म पितामह से कहते हैं कि किसी व्यक्ति या जीव की तरह नीति की भी अपनी एक उम्र होती है। यूं तो विदुर यह डायलॉग दुर्योधन व धृष्टराष्ट्र के चारित्रिक पतन के संदर्भ में बोल रहे होते है पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मुझे ऐसा लगता है कि वह हमारे देश विश्व व यहां तक की विधाता की प्रकृति सत्ता के लिए भी कह रहे हैं। नीति शब्द के साथ वैसे तो बहुत कुछ स्वत: ही आ जाता है पर मैं इसमें चरित्र, संस्कार, मर्यादा, जीवनशैली, भौतिक व आध्यात्मिक वैभव को विशेष रूप से रेखांकित करना चाहता हूं। जो सब कोरोना से ही हो रही हर मौत के बाद स्वयं भी मर कर तत्काल नए अवतारों में पुर्नजन्म ले रहे हैं। सुखद मात्र इतना है कि ये सभी प्रकृति हो या देश प्राचीन भारतीय सभ्यता, संस्कृति व लोक संस्कार के नए अवतारों में ढल रहे हैं। भले ही डरकर या बेबसी में।आर्थिक विनिमय की प्राचीन परम्परा जो भारत के कई छोटे-छोटे गांव व आदिवासी अंचलों में तो सदा से प्रचलित रही है अब शहरों, महानगरों की भी मजबूरी व जरूरत बन गई है।
गली मोहल्लों, मित्रों के मध्य आवश्यक वस्तुओं का विनिमय/सहयोग प्रदान खूब हो रहा है। गेहूं, आटा, चांवल, दाल, सब्जी, फल, तेल, घी, मसाले आदि दैनिक आवश्यकता की कई वस्तुओं के परस्पर विनिमय में कहीं भी पैसा माध्मय नहीं बन रहा। धन के अहंकारी वैभव को अपनी औकात पता चल गई है। कोई वायरस जो इंसानी समाज को इतना बेबस बना रहा है, वहीं प्रकृति का वैभव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। प्रकृति व इंसानी सत्ता में जमीन आसमान का फर्क साफ-साफ देखने को मिल रहा है। देश ही नहीं वरन् संपूर्ण विश्व में पुरातन भारतीय संस्कारों, मर्यादाओं व जीवन शैली के जीवन मूल्यों की सर्वोच्च सत्ता व सर्वश्रेष्ठता कोरोना ने सहज ही प्रमाणित कर दी है। घर में आने वाले हर अतिथि के पद प्रक्षालन कर हाथ घुलाकर गृह प्रवेश कराना, गले मिलकर या हाथ मिलाकर नहीं वरन् हाथ जोड़कर प्रणाम की मुद्रा में अभिवादन करना। पातल दोनों में भोजन कराना, मिट्टी या तांबे के बर्तनों में खाना पकाना, मिट्टी के चूल्हों में लकड़ी-गोबर के कंडे जलाकर भोजन पकाना, हल्दी का दूध, गरम पानी, नीबू पानी पीना, गर्मी के दिनों में छत पर खुले आसमान तले सोना, नीम की पत्तियों का धुंआकर मच्छरों को भगाना, सूर्य का प्रकाश घर के भीतर अधिकतम आये ऐसा घर बिना नक्शे के बनाना, धन से नहीं दान वीरता आदि के चरित्र की दौलत के आधार पर सम्मान देना, योग्यता व समर्पण की कसौटी से किसी की भी परीक्षा करना, गर्मियों में पेड़ों की छांव में आश्रय लेना, नदियों को मां की तरह मानना व निभाना आदि-आदि। पर आधुनिकता और विकास की अंधी दौड़ में यह सब कुछ बहुत पीछे कहीं छूट गया था हमसे जो अब फ्लैश बेक की तरह आ गया है हमारे जीवन में।अब इसे फ्लैश बेक ही समझना है या इसे पुन: अब अपने भविष्य का अंग बनाना है हमें तय करना है।
कोरोना संकट ने वास्तव में हम सबको अपनी औकात बता दी है। हमारे जिंदगी के तथाकथित दिखावटी ग्लैमर को शर्मसार होने पर मजबूर कर दिया वहीं मानवता ,संवेदनशीलता, जनसेवा, कर्मठता, त्याग, तपस्या, समर्पण, देशभक्ति, देशप्रेम की नई परिभाषाएं गढ़ दी हैं। उनके नए प्रतीक गढ़ दिये हैं। फिल्मी नायकों की तरह हर गांव हर शहर ने नए सिरे से अपने-अपने नायकों को गढ़ा है। उनको वह पहचान मिली है जिसके वे हकदार थे।तो वहीं फिल्मी खलनायक की तर्ज पर हर गांव व हर शहर के अपने खलनायक भी बेनकाब हो रहे है, अपनी राजनीति को जनसेवा का प्रर्याय बताने वाले व स्वयं को जनसेवक कहलवाने वाले, गांवों-शहरों के कई राजनैतिक नायक पर्दे के पीछे चले गये है, हालांकि पर्दें के पीछे से भी वे अपनी नायक वाली छवि बनाये रखने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं पर जनता को तो दर्शकों की तरह उनको पर्दे पर देखने की आदत हो गई है। अत: बेचारी उनके इस त्याग समर्पण को समझ नहीं पा रही है। ब्यूरोक्रेसी में भी कुछ-कुछ ऐसा ही नाटक चल रहा है। अलबत्ता फिल्मों के जूनियर आर्टिस्ट की तरह छोटे मैदानी कर्मचारी जरूर फिल्म को सुपरहिट बनाने के लिए फिल्म में पूरी जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाये दिख रहे हैं। अपनी जान की चिंता किये बिना। वैसे भी यह तबका कलयुग में फिल्म के निर्माता या निर्देशक के लिए अधिक महत्व रखता भी नहीं है। फिल्मों के स्टंट कलाकारों की तरह भी काम कर रहे हैं कई जूनियर आर्टिस्ट रीयल लाइफ की इस फिल्म कोरोना के महाभारत में।
महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म के मध्य लड़ा गया ऐसा बताते हैं सभी ज्ञानी, बुद्धिजीवी व इतिहासकार। कोरोना का महाभारत भी मुझे कुछ ऐसा ही लग रहा है। प्रकृति के खिलाफ हमारी क्रूरता ,संवेदनशून्यता व प्रकृति के शोषण के सभी कीर्तिमान तोड़कर हमने ही एक ऐसा अधर्म रच डाला था जिसके साइडइफेक्ट के रूप में कोरोना जैसी महामारी की उत्पत्ति मानी जा रही है। मांसाहार की दानवीय व पैशाचिक प्रवृत्तियों की सभी सीमाएं तोड़ देने की शर्मनाक भूल व लापरवाही को तो चिकित्सा विज्ञान भी मान रहा है। वहीं इसे चीन की सबसे बड़ी वैश्विक ताकत बनने की नापाक हरकत भी माना जा रहा है। महाभारत में पुत्र मोह में अंधे धृष्टराष्ट्र दिव्य चक्षु प्राप्त अपने सारथी संजय से पूछते है कि भूमि के किसी टुकड़े के लिए युद्ध क्यों होते है? संजय जबाव देता है महाराज भूमि सत्ता की संवाहक होती है, ताकत का प्रतीक होती है, इसलिए सत्ता व ताकत की हवस ने भी कदाचित बिना अस्त्र-शस्त्र का वायरस महाभारत रचा है। कम से कम अमेरिका तो ऐसा ही मानता है। पर इसके लिए क्या सिर्फ चीन जिम्मेदार है?, क्या सिर्फ तबलीगी जमात जिम्मेदार है?, महाभारत में महात्मा विधुर श्रीकृष्ण से कहते है कि हस्तनापुर की प्रजा का क्या दोष है वह क्यों भोगे, इस महायुद्ध का अभिशाप। श्री कृष्ण का जबाव आज के इस कालखंड में बहुत प्रासांगिक है। श्रीकृष्ण कहते है कि राजा के दुराग्रहों व बदनीयति के लिए प्रजा भी दोषी है जो अंकुश नहीं लगा सकी, विरोध करने का साहस नहीं कर सकी तटस्थ बनी रही।
इतिहास सबके अपराध लिखता है, सबकी भूमिकाएं परिभाषित करता है, कोरोना महाभारत को भी इतिहास साक्षी भाव से देख रहा है। सब कुछ रिकार्ड कर रहा है। कर्मठता, समर्पण, अनुशासन, देशभक्ति, देशप्रेम आदि की कई कसौटियों पर कस रहा है। सबकी भूमिकाएं असली और नकली, स्वार्थ, नि:स्वार्थ, संवेदनशीलता तथा संवेदनहीनता, त्याग समर्पण, सुविधा भोगिता, आदि-आदि सहज ही बेनकाब हो रहीं हैं जिस तरह द्वापर में महाभारत युद्ध के पूर्व युद्ध के दौरान व बाद में हुईं थीं ।धर्म-अधर्म के प्रतीक पांडव व कौरव पक्ष में खड़े हर चेहरे की तरह कोरोना के इस महाभारत ने भी राजनीतिक सामाजिक व पारिवारिक स्तर पर भी भूचाल सा ला दिया है। रिश्तों की आत्मीयता खा गई है कोरोना की डायन। चार कंधों, अंतिम दर्शन, अंतिम यात्रा व बिदाई, अंतिम संस्कार का चरित्र ही मर गया है व पुर्नजन्म लेकर ऑनलाईन हो गया। रोजगार के लिए महानगरों के लिए पलायन कर चुके लाखों मजदूर भी मुझे आज एक मई के इस मजदूर दिवस पर याद आ रहे है जो हजारों किलोमीटर पैदल चलकर भी अपने गांवों की ओर अपने परिवार के लिए अपनी जड़ों की तरफ वापस लौट रहे हैं। रोजगार देने वाले महानगरों की चमक दमक से अब डर लगने लगा है उन्हें। कोरोना के सदमें में डूबे लाखों चेहरे अब मंदिरों की जगह अस्पतालों के भगवान की कृपा पाने के लिए विनती कर रहे है।आज के दौर के कई असली दानवीर कर्ण परदे पर तो कई परदे के पीछे से धर्म के पक्ष में गतिमान हैं। राजा महाराजा, महामंत्री, सेनापति सबकी अपनी-अपनी भूमिकाएं है जो इतिहास लिख रहा है। तो प्रजा देख, सुन, समझ भी रही है। पद्नाम बदल जाने से उसका कर्तव्य तो कभी किसी काल में नहीं बदलता। पद्नाम का चरित्र जरूर बदल सकता है, पदनाम की नीयत जरूर बदल सकती है, उसकी मर्यादाएं उसके संस्कार उसके वैभव के स्वरूप जरूर बदल सकते है, बदल जाते हैं। प्रजा की देश समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारियां व उसका राष्ट्रीय चरित्र उसकी जीवन शैली भी जरूर बदल जाती है। जैसा कि मैंने इस आलेख के शीर्षक में ही कह दिया था कि इन सबकी एक तय उम्र होती है।
सोचता हूं कि महाभारत का महायुद्ध तो दुर्योधन की बदनीयति व चरित्रहीनता के सम्मुख धृष्टराष्ट्र के पुत्रमोह के वशीभूत होने की विवशता, भीष्म के प्रतिज्ञावृत होने की मजबूरी, द्रोणाचार्य की राजगुरु व कृपाचार्य के समक्ष कुलगुरू होने की बेबसी व जेष्ठ कुंतीपुत्र कर्ण के दुर्योधन के कर्ज तले दबे होने व उसकी मित्रता की बेडिय़ों में जकड़े होने का दुर्भाग्यपूर्ण प्रारब्ध का परिणाम था। सब असहाय थे यहां तक कि दुर्याधन के मामा व गांधारी के भाई शकुनी जिसे सब महाभारत का एक षड्यंत्रकारी खलनायक मानते हैं, दुर्योधन की स्वार्थसिद्धी का उत्प्रेरक मानते हैं ,वह भी तो इस महाभारत के महायुद्ध से अपने ही 100 भांजों का सर्वनाश करवाकर अंधे धृष्टराष्ट्र के लिए अपनी बहन गांधारी का हाथ मांगने की धृष्टता करने वाले भीष्म पितामह से प्रतिशोध ले रहा था। कौरवों के पक्ष में खड़ा दिखने वाला शकुनी इस तरह कौरवों के घर में ही उनका सबसे बड़ा शत्रु था। सतयुग में विभीषण ने तो समय रहते ईमानदारी से अपने भाई रावण व अपनी मातृभूमि लंका को छोड़कर श्रीराम की शरण ले ली थी पर यह सतयुग नहीं द्वापरयुग था। अत: द्वापर के शकुनी ने तो रिश्तों की सभी मर्यादाएं तोड़ डाली थी। हम कलयुग में रहने वाले जो कोरोना के महाभारत को लड़ रहे हैं अपने घरों में महाभारत देखते हुए सभी अपने आप को पांडवों के धर्म के पक्ष में मानकर चल रहे होंगे पर क्या वास्तव में हम वह सब कर रहे है जो हमें आज करना चाहिए? कोरोना रूपी दुर्योधन का वध करने के लिए यदि मेरा यह आलेख आपको यह आत्मचिंतन करने के लिए प्रेरित कर पाया तो मेरा यह लेख सार्थक होगा।
क्योंकि कोरोना का यह महाभारत अभी बहुत जल्द खत्म नहीं होने वाला। कब खत्म होगा यह हम सबकी भूमिका से ही तय होगा।
कलयुग का यह वायरस महाभारत हमारी चाल, चरित्र, जीवनशैली सब बदलकर जाना वाला है। जिस तरह प्रकृति ने स्वयं को बदला है पुर्नजीवित किया है अपने वैभव को, उत्तरोत्तर निखारा है अपने कलेवर को सुवासित किया है, मिट्टी की सौंधी गंध को संरक्षित किया है, वनों के एकांत को, नदियों की निर्मलता को, पर्वतों की जिजीविषा को, आसमान के अनंत वैभव को, हवाओं की महक को, पक्षियों की चहक को…..। क्या हम इंसानी समाज भी प्रकृति से प्रेरणा लेकर अपने-अपने मुखौटे उतारकर अपने असली चेहरे के साथ अपने असली चरित्र को, अपने संस्कारों व आदर्शों को, अपनी संवेदनाओं का कायाकल्प करते हुए इसी तरह द्वापर को भी छलांग मारकर पार करते हुए सतयुग की फिजाओं में समाहित, स्थापित कर पायेंगे। द्वापर को पार करने की छलांग न भी लगा सकें तो कम से कम द्वापर के ही उस पांडव पक्ष के खेमें में स्वयं को खड़ा कर सकें जिसके ईष्टदेव मेरे श्री कृष्ण थे। मौत को जीवन का अंतिम व शाश्वत सत्य मानकर यदि हम इन दोनों में से कुछ भी कर पाये तो कोरोना का यह हादसा भी कई कुर्बानियों कई मुखाग्नियों के बाद हमें एक ऐसा दूसरा खूबसूरत जीवन देकर जायेगा जिसकी कल्पना भी शायद कभी किसी ने नहीं की होगी। हम अपना चरित्र सुधारेंगे तो सामाजिक व राष्ट्रीय चरित्र भी अपने आप सुधर जाएगा।
जय श्रीकृष्ण।
चंद्रकांत अग्रवाल, वरिष्ठ लेखक, पत्रकार व कवि हैं जो विगत 35 सालों से साहित्य व पत्रकारिता हेतु लेखन कार्य कर रहे हैं। आप अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों, व्याख्यान मालाओं में देश भर में आमंत्रित व सम्मानित हुए हैं। हजारों रचनाएं कई राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं, अखबारों में प्रकाशित हो चुकी हैं। 4 स्थानीय अखबारों का संपादन कार्य आपके द्वारा किया गया।
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