पिछला फाइव तो इस बार केवल टू स्टार : अखिल भारतीय महात्मा गांधी मेमोरियल हॉकी टूर्नामेंट

Post by: Manju Thakur

Updated on:

– रोहित नागे (अतिथि संपादक)
किसी भी आयोजन को पूर्ण करने और परिपूर्ण करने में काफी मेहनत लगती है, इसमें संदेह नहीं। यह भी तय है, कि उंगलियां उठती रहती हैं, आप चाहे कितना अच्छा करो। गलती होना, मानवीय भूल होना भी स्वभाविक प्रक्रिया का अंग है, परंतु वो गलती जानबूझकर की गई लगे तो आयोजन की मूल भावना आहत होती है। लिखने का संदर्भ इस वर्ष हुए अखिल भारतीय महात्मा गांधी मेमोरियल हॉकी टूर्नामेंट से जुड़ा है। गत और इस वर्ष के आयोजन का यदि तुलनात्मक विश्लेषण करेंगे तो पिछले वर्ष का टूर्नामेंट इस वर्ष से कई मायनों में श्रेष्ठ था। यदि स्टार रेटिंग की बात करेंगे तो पिछला फाइव स्टार था। इस बार स्टार केवल दो ही दिए जा सकते हैं।
शुरुआत से भले ही कछुआ चाल चले थे, लेकिन हमने कहानियों में पढ़ा है कि कछुआ भी जीत सकता है। आयोजन का मूल उद्देश्य पावन था, हॉकी के खिलाडिय़ों की भावनाएं पाक थीं, मेहनत की तुलना में पिछले वर्ष से अधिक रेटिंग दी जा सकती है। समर्पण भी तारीफ के काबिल था। सवाल यह है कि जब सबकुछ अच्छा था तो फिर टूर्नामेंट अंत तक आते-आते नीरस कैसे हो गया। दर्शकों को जो दिखा, उस पर गौर करें तो यह टूर्नामेंट अपनों को उपकृत करने मात्र का आयोजन बनकर रह गया। कुछ वरिष्ठ हॉकी खिलाडिय़ों के बेटों को उपकृत करने के लिए, अम्पायरों ने भी अपने ईमान गिरवी रख दिए। जानते हैं, इसका जवाब होगा कि नियमों की जानकारी दर्शकों को नहीं है, जैसे जवाब आएंगे। परंतु साहब जो साफ दिखता है, उंगली उस पर ही उठायी जाती है।
इस मायने में टूर्नामेंट पर उंगली उठी और उसका नतीजा सेमीफाइनल में रांची मेकन की हार के बाद मैदान पर हजारों हॉकी प्रेमियों ने देखा। जहां तक बात है, जनता के नियमों की जानकारी नहीं होने की तो हजारों की संख्या में जो दर्शक हॉकी देखने पहुंचते हैं, वे केवल तमाशबीन नहीं होते हैं, या उनके पास फालतू वक्त नहीं होता है जो वे गैलरियों में बैठकर गुजारने आते हैं। कहीं तो कुछ गलत था, तभी अम्पायर पर दर्शकों का गुस्सा भड़का। पूरे टूर्नामेंट में एक दर्शक के नजरिए से जो देखा, उसमें साफ दिखा कि अच्छी टीमों को खराब अम्पायरिंग का खामियाजा भोगना पड़ा। हमने तो अपनों को उपकृत करने के लिए जो करना था, अपने मन का कर लिया। इतने बड़े टूर्नामेंट की छवि पर क्या असर होगा, यह कतई नहीं सोचा। बीएसएफ जालंधर के कोच ने जो कहा, उसे नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वे इटारसी आने से पहले उस पल को याद करेंगे, जब खराब अम्पायरिंग के कारण उनकी टीम बाहर हो गई। टीम को बुलाने में, वो भी चट ग्राउंट पर कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह आप वरिष्ठ खिलाडिय़ों से बेहतर कोई नहीं जानता। आपकी मेहनत, लगन, समर्पण को जितने सलाम किए जाएं कम हैं, लेकिन आपकी इन रह खूबियों पर आपका स्वार्थ भारी पड़ गया है, इस बार। रांची मेकन की हार, पूरे स्टेडियम ने लानत भेजी। गालियां ऐसी सुनने को मिलीं, जिन्हें आप इसलिए महसूस नहीं कर सके, क्योंकि ये आपके कानों तक नहीं पहुंची।
रांची के कोच ने विरोध दर्ज कराया। जालंधर के कोच ने विरोध दर्ज कराया, लेकिन आपने सबको नज़रअंदाज किया। आने वाले समय में आयोजनकर्ताओं को विचार करने की जरूरत है, ऐसे लोगों को प्रतियोगिता में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने से पहले। जरूरी नहीं कि जो लोग हैं, उन्हीं से हॉकी है। यदि टीमें ही नहीं आएंगी तो क्या प्रतियोगिता कराएंगे, दर्शक ही नहीं आएंगे तो आयोजन का औचित्य ही क्या रह जाएगा। अंत में बस इतना ही कि इस बार खेल देखा लेकिन, मैदान पर कम पर्दे के पीछे अधिक। खेल भावना मैदान पर तो दौड़ती रही लेकिन बाउंड्री लाइन के बाहर दम तोड़ती रही। कुछ जो आयोजन को सफल बनाने में ईमानदार प्रयास कर रहे थे, वे भी चुप थे, क्योंकि आयोजन समिति में होने की मजबूरी उन्हें चुप रहने को विवश कर रही थी। सब जानते हैं, शहर हॉकी प्रेमियों का है और हॉकी को प्रेम करता है। तभी फाइनल में लोग आए, लेकिन फाइनल की नीरसता देखकर उनका भी दिल रोया है। शायद, ईश्वर सद्बुद्धि दे, ऐसे लोगों जो आयोजकों के साथ रहकर केवल स्वहित को प्राथमिकता देते हैं। आयोजन बेहतर था, लेकिन बेस्ट हो सकता था। बस, लिखने को किताब लिखी जा सकती है, लेकिन, सुधार आ जाए तो दो शब्द ही काफी हैं।

error: Content is protected !!