बहुरंग : “चाँद” को याद करने का दिन

Post by: Manju Thakur

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– विनोद कुशवाहा
आज निश्चित ही ‘ चाँद ‘ को याद करने का दिन है लेकिन ये “चाँद” आसमां का नहीं है । ये चाँद ‘ज़मीं का ‘ हैं। जी हां। अब आप समझ ही गए होंगे कि हम किस की बात कर रहे हैं। विपिन परम्परा के गीतकार स्वर्गीय चांदमल ” चाँद ” की जिनकी आज ‘पुण्य तिथि’ है। 14 it 1कविता और कवि – सम्मेलनों के गरिमामय मंचों के प्रति पूर्णतः समर्पित एक शख़्सियत। बड़े – बड़े बाल, रंगीन कुरता, सफेद पायजामा, हाथ और कंधे के बीच दबा एक छोटा सा बैग। हवा में उड़ती केश राशि को एक झटके में पीछे समेटते चाँद साहब जब मस्तानी चाल से जय स्तम्भ के आसपास नज़र आते तो दिल खुश हो जाता था। वे हमेशा ही सुनने – सुनाने का मन रखते थे। इसके लिए कोई न कोई योजना सदा उनके पास रहती। भले ही माध्यम कोई सी भी संस्था हो। किसी भी संस्था का बैनर हो। ‘ कलमकार परिषद ‘ से लेकर ‘आस्था ‘ तक जितनी भी साहित्यिक संस्थाओं में वे रहे उनको सिर्फ कविता से ही मतलब रहा। 25 वर्ष तक नगर में उन्होंने “रसरंग ” कवि – सम्मेलन का सफलतापूर्वक संचालन किया। इटारसी चांदमल ‘ चाँद ‘ का शहर है किसी की बपौती नहीं है क्योंकि गुरुदेव उमाशंकर जी शुक्ल के बाद यदि किसी ने नई पीढ़ी को प्रोत्साहित किया है तो वे केवल चाँद साहब ही थे। ये अलग बात है कि इनमें से जिन्होंने चाँद साहब को सीढ़ी बनाकर शिखर को छुआ वे अहसान फरामोश निकले। उन्होंने कभी किसी मंच से चाँद साहब का नाम तक लेना गवारा नहीं समझा। चाँद साहब को श्रेय देना तो दूर की बात है। चाँद साहब को तो आज भी सम्मान के साथ याद किया जाता है। ऐसे स्वार्थी कवियों का कोई नाम लेवा नहीं रह जाएगा जिन्होंने गुटबंदी से इटारसी की साहित्यिक परम्पराओं को नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। खैर।
चाँद साहब के पश्चात कविता के प्रति समर्पण का ऐसा भाव मैंने सिर्फ स्व. रविशंकर पांडे मास्साब में देखा जो लिखते भले ही नहीं थे पर आयोजन का और कविता सुनने का उन्हें भी बेहद शौक था। वे और स्व बालकृष्ण नन्दवानी ” मिट्ठू भैय्या ” अभूतपूर्व श्रोता थे। उनकी उपस्थिति के बिना नगर में आयोजित कवि गोष्ठियां अधूरी रहतीं। रही चाँद साहब के दौर के कवियों की बात तो उनमें से अधिकांश कविता के नाम पर सिर्फ अपनी रोटी सेंकते रहते हैं। कविता की आड़ में मंचों की जुगाड़ करने वाले ऐसे कवियों को धिक्कार है जिन्होंने अपने स्वार्थ की खातिर नई पीढ़ी की कोंपलों को अपने पैरों तले कुचल दिया। बरगद या पीपल के वृक्ष के नीचे आज तक कभी कोई नन्हा पौधा पनपा भी नहीं है। खैर।
शुरुआत के दिनों में चाँद साहब अपना उपनाम ” चाँद ज़मीं का ” ही लिखना पसन्द करते थे। देखा जाए तो वे वास्तव में इटारसी के साहित्य जगत की सन्नाटे वाली रात के ‘चाँद’ ही तो थे। बस स्टैंड और जय स्तम्भ के बीच उनके “फैशन हाउस” पर कवियों का जमावड़ा लगा रहता। आज भी बाहर से कोई कवि आता है तो उस पवित्र स्थान को प्रणाम करना नहीं भूलता। भले ही आज वहां ‘ फैशन हाउस ‘ नहीं है लेकिन चाँद साहब की स्मृतियां तो हैं। उन्हें याद करते हुए इटारसी आये हुए साहित्यकार उस स्थान पर आदरपूर्वक  रुककर चाँद साहब का पुण्य स्मरण करते हैं। तब मंच की तरफ बढ़ते हैं। चाँद साहब भी तो अपने गीतों में इसी आशय की भावना कितनी विनम्रता के साथ व्यक्त करते थे

छोड़ अहम के सब दरवाजे
प्यार का प्यार से दीप जलाना ,
आये जो भी द्वार तुम्हारे
चार कदम चलकर अपनाना । 

ये था चाँद साहब का बड़प्पन। यही उनकी सीख भी थी। आपके तथाकथित शागिर्द भले ही आपको न अपनायें चाँद साहब मगर हम आपको कभी नहीं भुला पायेंगे। आप हमेशा याद रहेंगे दादा। ” नर्मदांचल परिवार ” की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि।

vinod kushwah

विनोद कुशवाहा
Contact : 96445 43026

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