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Editorial : आखिर कब तक निंदा करेंगे, कैंडल लेकर घूमेंगे हम?

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आजादी के सात दशक बीतने पर भी हम देश की आधी आबादी को पर्याप्त सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सके हैं, यह घोर निंदनीय और चिंतनीय विषय हो चला है। निरंतर  बढ़ते  महिलाओं (Women) के खिलाफ अपराध न सिर्फ हमें झकझोर रहे हैं बल्कि सोचने पर भी मजबूर कर रहे हैं कि हम किस सभ्यता में जी रहे हैं। जिस देश में मातृशक्ति को पूजा जाता है, देवी के रूप में। कन्यारूप में उनके चरण पखारे जाते हैं, बेटी को दो कुलों की तारणहार माना जाता है, उसे देश में उसी महिला (Women) पर इतने जघन्य अत्याचार, न सिर्फ निंदनीय है बल्कि व्यवस्था पर बड़ा सवाल भी है। देश में पिछले वर्षों में होने वाली घटनाओं पर नजर डालें तो हर बार देश ने यह प्रण लिया है कि अब ऐसा नहीं होगा। निर्भया (Nirbhaya Rape Case) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जनता कैंडल मार्च, रैली, जुलूस निकालकर सरकारों पर दबाव बनाती है। सरकार कानूनों को और पैना करती है, लेकिन फिर भी ये अपराध नहीं रुकते हैं तो फिर यह सोचने की बात हो जाती है कि आखिर चूक कहां हो रही है।
दरअसल, कानून का डर अपराधियों के मन से लगभग खत्म होता जा रहा है। अब कानून के डर के साथ ही सामाजिक दायित्वों को भी महत्व देना होगा। महिला सम्मान (Women honor) के प्रति लोगों को जागरुक करने का बीड़ा समाज को ही आगे आकर उठाना होगा। महिलाओं (Women)को स्वयं भी अपनी रक्षा के लिए मानसिक और शारीरिक तौर पर तैयारी करनी होगी। आत्मरक्षार्थ कदम उसे उठाने के लिए खुद को तैयार करना होगा। क्योंकि कई मर्तबा ऐसा होता है कि जब घटना होती है तो कोई मददगार आसपास नहीं होता है। ऐसे समय में अपना संपूर्ण साहस जुटाकर रणचंडी का रूप धारण करना होगा, क्योंकि इस देश में माता गौरी (Mata Gouri) की उपासना होती है तो रणचंडी (Ranchandi) की पूजा भी यहीं होती है। सौम्य रूप में मां गौरी हैं तो राक्षसों का नाश करने रणचंडी का रूप भी इसी देश में पूजनीय है। जब नारी रणचंडी के रूप में आएगी तो फिर राक्षसी सोच में कमी आना प्रारंभ हो जाएगी।
इस वक्त महिलाओं (Women) की सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा है और अब विचार करने का विषय भी है कि आजादी के बाद जहां हमें महिला सुरक्षा (Women Security) की गारंटी समाज को देनी चाहिए थी, वह नहीं दे सके। थोड़े-थोड़ समय पर ऐसी घटनाएं हमें झकझोरकर रख देती हैं। इन घटनाओं के बाद सरकारों को जो भूमिकाएं निभानी चाहिए होती हैं, इनमें वह असफल होकर साजिशों में लग जाती है। उनकी भूमिकाओं पर सवाल उठने लगते हैं। समाज की भूमिका भी जैसी होनी चाहिए, वह न होकर दिशाभ्रमित हो जाती है। जातिगत समीकरण साधे जाने लगते हैं। हमारे राजनेता जातीयता की आग को हवा देने का काम करने लगते हैं। उत्तरप्रदेश के हाथरस या भारत के किसी भी राज्य में इस तरह की घटनाएं भारत की बेटी पर अत्याचार माना जाना चाहिए। लेकिन, उसे दलित की बेटी, सवर्ण अपराधी जैसे नाम दिये जाने लगते हैं तो लगता है कि हम आज भी सभ्य समाज में नहीं बल्कि उसी पुरातन रूढि़वाद की बेडिय़ों में जकड़े हुए हैं, और इन बेडिय़ों को तोडऩे में इसलिए सफल नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि इस देश की राजनीति ऐसा करने नहीं देती है। इस तरह की हर घटनाओं का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिशें होने लगती हैं। ऐसी कोशिशों को भावनात्मक सपोर्ट मिल जाता है और पीडि़त पक्ष और उसके पक्ष में खड़े लोग भी इस तरह की कोशिशों में भरपूर सहयोग करते हैं जिसका दूरगामी राजनीतिक लाभ नेता उठाने लगते हैं। समाज को अब ऐसी बातों को समझकर इनसे दूरियां बनाना चाहिए और ऐसे लोगों को दरकिनार कर स्वयं शासन पर प्रशासन को सुरक्षा के लिए दबाव बनाकर मसलों को हल कराना चाहिए। जब इस तरह से समाज अपनी भूमिका निभाना शुरु कर देगा तो ऐसे मुद्दों पर राजनीति भी कम हो जाएगी और ऐसी घटनाओं पर भी विराम लगने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी, क्योंकि कई बार राजनीतिक शह पाकर भी ऐसी घटनाएं होती हैं।

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