विषमुक्त खानपान आज की महती जरूरत
यूं तो इटारसी एशिया का सबसे बड़ा जंक्शन के रूप में विख्यात है, जहां से हर दिशाओं की गाडिय़ां होकर गुजरती हैं और वर्तमान में वह मात्र होशंगाबाद जिले का एक तहसील प्लेस है। किन्तु यह क्षेत्र हरिशंकर परसाई, माखनलाल चतुर्वेदी, भवानी प्रसाद मिश्र, अनुपम मिश्र, डाक्टर राधेलाल रिछारिया आदि तमाम विभूतियों की भी जन्मभूमि के निकट रहा है। प्राचीन समय में उस क्षेत्र में ईंट और रस्सी के व्यावसाय में महारत हासिल थी जो कालांतर में उसके नाम का कारण भी बना। क्योंकि कहते हैं कि यहां की पहाड़ से बहकर आई मिट्टी की ईंट काफी मजबूत होती थी और बबई नाम की घास की रस्सी काफी मात्रा में बनती एवं बिक्री के लिए दूर-दूर जाती थी। यही कारण था कि बाद में मेहनतकश लोगों के इस बसाहट का नाम ही ईंटा-रस्सी, इटारसी पड़ गया। इटारसी की मिट्टी काली उपजाऊ है जहां गेहूं, चने की यूं ही अच्छी पैदावार थी, पर तवा सिंचाई प्रोजेक्ट ने आकर खेती की रंगत ही बदल दी। रसायनिक खाद, नींदानाशक, कीटनाशक आदि का इतना प्रयोग होने लगा कि देखते ही देखते उत्पादन में यह क्षेत्र मिनी पंजाब सा बन गया। किन्तु अधिक समय नहीं लगा जब तमाम तरह की बीमारियों के लक्षण भी दिखने लगे और वहीं से सुगबुगाहट शुरू हुई विषमुक्त अनाज एवं सब्जियों की। यहां जैविक उत्पाद का बाजार लगना शुरु हुआ जिसकी अगुआई की रिटायर प्राध्यापक डॉ. कश्मीर सिंह उप्पल, सुरेश दीवान, नरेंद्र चौधरी, संस्कार गौर, हेमंत दुबे, हेमंत नागर, राकेश गौर आदि के साथ साथ क्षेत्र के तमाम जागरूक लोगों ने। इस तरह इनकी प्रेरणा से अनेक ऐसे किसान दिखे जो आधुनिक रसायन युक्त खेती को कर्ज में फंसने का एक छलावा कहते हुए गाय, गोबर आधारित खेती को ही टिकाऊ खेती मानने लगे। साथ ही उत्पादक, उपभोक्ताओं का ऐसा संगठन बना जिसके बीच कोई बिचौलिया न हो।
अक्सर देखा जाता था कि 70 के दशक तक जब हरित क्रांति नहीं आई थी, तब श्रमिक कर्मचारी यानी हर उपभोक्ता अपनी आमदनी का 50 प्रतिशत भोजन में खर्च करता था। तब उसे विशुद्ध अनाज मिलता था। किन्तु आज कोई उपभोक्ता अपनी आमदनी का 5 प्रतिशत भी भोजन में खर्च नहीं करना चाहता, पर अनाज इस प्रकार के खेत का खा रहा है, जिसे विषैला समझ मछली, मेंढक, केकड़े, सांप केंचुए आदि खेत छोड़ कब के जा चुके हैं। क्योंकि वह सब मनुष्य से अधिक संवेदनशील थे।
सोचने की बात है कि यदि यही उपभोक्ता अपने आमदनी का मात्र दस-पन्द्रह प्रतिशत भी इस विषमुक्त अनाज, सब्जी में खर्च करने लगे तो उससे किसान की भी कुछ आमदनी बढ़ जाए जिससे वह रसायन रहित सब्जी और अनाज प्रदाय में सक्षम बन सके और पर्यावरण जैव विविधता को भी संरक्षण मिले। अकेले इटारसी भर नहीं, आज वक्त का तकाजा है कि हर शहर का उपभोक्ता फैमली डाक्टर के साथ-साथ अपना एक फैमली किसान भी रखे जिससे उसे विषमुक्त अनाज और सब्जी मिल सके। अगर उसने फैमली किसान बना लिया तब न तो उसे बार-बार नागपुर की ओर जाना पड़ेगा न ही फैमली डाक्टर की उतनी जरूरत ही पड़ेगी। कितनी बड़ी बिडम्बना है कि हर व्यक्ति अपनी गाड़ी के इंजन की सुरक्षा के लिए उसमें विश्वसनीय पैट्रोल पंप से विशुद्ध डीजल य पंट्रोल डलाना चाहता है? किंतु अपने परिवार के पेट में पहुंचने वाले अनाज, सब्जी के प्रति पूरी तरह उदासीन बना हुआ है।
पद्मश्री बाबूलाल दाहिया, बघेली कवि
पिथौराबाद, सतना मप्र