- अखिलेश शुक्ला

हिंदी सिनेमा के इतिहास में कई ऐसे फिल्मकार हुए जिन्होंने अपने काम से फिल्म इंडस्ट्री की दिशा ही बदल दी। लेकिन जे ओमप्रकाश का नाम उन चुनिंदा निर्माताओं और निर्देशकों में लिया जाता है जिन्होंने सिर्फ फिल्में ही नहीं बनाईं, बल्कि अपने काम से नई सोच भी दी। आज लोग उन्हें ऋतिक रोशन के नाना के तौर पर जानते हैं, लेकिन उनकी असली पहचान एक सफल फिल्मकार के रूप में ही थी।
एक गीत जिसने दिलों में जगह बनाई
1978 में आई उनकी फिल्म ‘अपनापन’ का गीत ‘आदमी मुसाफिर है, आता है जाता है’ आज भी हर किसी को जिंदगी का सच याद दिला देता है। खुद ओमप्रकाश जी को भी यह गीत बेहद प्रिय था। उनकी फिल्मों के गाने सिर्फ संगीत नहीं, बल्कि भावनाओं की गहराई थे। ‘आप की कसम’, ‘आशा’, ‘आन मिलो सजना’, ‘आया सावन झूम के’ जैसी फिल्मों के गीत आज भी सुनने पर दिल को छू जाते हैं।
ऋतिक रोशन का सुपर-टीचर
ऋतिक रोशन ने एक बार कहा था, “मेरे सुपर-30 नहीं, सुपर-टीचर तो मेरे नाना जे ओमप्रकाश हैं।” ऋतिक उन्हें डेडा कहकर बुलाते थे। 6 साल की उम्र में ऋतिक ने अपने नाना की फिल्म ‘आशा’ से ही फिल्मों में कदम रखा। बाद में ‘आस पास’ और ‘भगवान दादा’ में भी उन्होंने बाल कलाकार के रूप में काम किया। दोनों का रिश्ता इतना गहरा था कि अपनी वसीयत में ओमप्रकाश जी ने लिखा था कि उनका अंतिम संस्कार ऋतिक ही करें।
संघर्ष से सफलता तक का सफर
24 जनवरी 1927 को सियालकोट में जन्मे ओमप्रकाश जी के पिता लाहौर में शिक्षक थे। इसी कारण पढ़ाई के प्रति उनका लगाव शुरू से था। बंटवारे के बाद वे मुंबई आ गए, लेकिन राह आसान नहीं थी। उन्होंने स्पॉट बॉय से शुरुआत की। छोटी-छोटी जिम्मेदारियां निभाते हुए वे सेट पर हर दृश्य को ध्यान से देखते, सीखते और समझते थे। उन्होंने अपने पिता से सीखा था कि “हमेशा छात्र बनकर सीखते रहना चाहिए। यह मत सोचो कि तुम्हें सब आता है।”
‘ए’ अक्षर से फिल्मों का नाम क्यों रखते थे?
1960 में जब उन्होंने अपनी पहली फिल्म ‘आस का पंछी’ बनाई तो यह सफल रही। फिर ‘आई मिलन की बेला’ भी हिट रही। इन दोनों फिल्मों के नाम ‘ए’ अक्षर से शुरू हुए थे। तब से उन्होंने मान लिया कि ‘ए’ अक्षर उनके लिए लकी है। इसके बाद उनकी लगभग सभी फिल्मों के नाम इसी अक्षर से शुरू हुए, जैसे –
- आए दिन बहार के
- आया सावन झूम के
- आन मिलो सजना
- आँखों आँखों में
- आप की कसम
- आक्रमण
- अपनापन
- आशा
- आस पास
- अर्पण
- आखिर क्यों
- आदमी खिलौना है
यह सिलसिला इतना मजबूत था कि उनके करीबी दोस्त मोहन कुमार ने भी अपनी फिल्मों के नाम ‘ए’ अक्षर से रखने शुरू कर दिए। इसी तरह उनके दामाद राकेश रोशन ने भी ‘के’ अक्षर को लकी मान लिया और उनकी ज्यादातर फिल्मों के नाम ‘के’ से ही रखे।
राजेन्द्र कुमार से धर्मेंद्र तक
उनकी फिल्मों में कई बड़े सितारे रहे। राजेन्द्र कुमार, वैजयंती माला, धर्मेंद्र, आशा पारिख, राजेश खन्ना, जीतेंद्र – सभी ने उनके साथ काम किया। खास बात यह थी कि ओमप्रकाश जी सेट पर हर कलाकार का बहुत ख्याल रखते थे। आशा पारिख ने एक बार बताया था कि ‘आन मिलो सजना’ की शूटिंग के दौरान उनके पैर की उंगली टूट गई थी। ओमजी ने शूटिंग रोक दी और उन्हें तुरंत अस्पताल लेकर गए। ऐसे इंसान बहुत कम होते हैं जो काम से ज्यादा इंसानियत को महत्व दें।
निर्देशन में भी चमका नाम
1974 में ‘आप की कसम’ के जरिए उन्होंने निर्देशन भी किया। राजेश खन्ना, मुमताज और संजीव कुमार जैसे सितारों वाली इस फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। फिल्म के गाने जैसे जय जय शिव शंकर, करवटें बदलते रहे और जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम आज भी अमर हैं। इसके बाद उन्होंने ‘आक्रमण’, ‘आखिर क्यों’ जैसी कई हिट फिल्में बनाईं।
जीवनभर रिश्तों को निभाने वाले इंसान
ओमप्रकाश जी सिर्फ फिल्मकार नहीं थे, बल्कि रिश्तों को दिल से निभाने वाले इंसान थे। उनके दोस्त मोहन कुमार से उनकी दोस्ती इतनी गहरी थी कि उन्होंने अपनी पत्नी की बहन की शादी मोहन कुमार से करवा दी, ताकि दोस्त रिश्तेदार भी बन जाए। वे कहते थे, “रिश्ते बनाना आसान है, निभाना कठिन। लेकिन कोशिश करो कि हर रिश्ता मुस्कुराता रहे।”
संगीत की बेहतरीन समझ
उनकी फिल्मों का संगीत हमेशा लोगों की जुबान पर रहा। ‘आया सावन झूम के’ का टाइटल सॉन्ग, ‘आए दिन बहार के’ का ‘मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे’, ‘आखिर क्यों’ का ‘दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है’ – ऐसे कई गाने आज भी मन को छूते हैं। यह उनकी संगीत समझ और कविता प्रेम का ही परिणाम था।
आखिरी दिन और विरासत
2001 तक उन्होंने फिल्में बनाईं लेकिन 1985 की ‘आखिर क्यों’ के बाद कोई बड़ी हिट नहीं दे सके। अंतिम दिनों में वह बीमार रहने लगे थे। अभिनेता दीपक पाराशर ने बताया था कि “अंतिम महीनों में वह बोल भी नहीं पाते थे, खाना नली से दिया जाता था।” लेकिन उनके चाहने वालों के दिलों में उनकी यादें हमेशा रहेंगी।
निष्कर्ष
जे ओमप्रकाश सिर्फ फिल्मों के निर्माता-निर्देशक नहीं थे। वे एक संघर्षशील कर्मयोगी, रिश्तों को सम्मान देने वाले इंसान, और संगीत व कला के सच्चे प्रेमी थे। ‘ए’ अक्षर को अपनी फिल्मों में लकी मानने वाले ओमजी ने साबित किया कि सफलता मेहनत, इंसानियत और सकारात्मक सोच से मिलती है। आज भी उनकी फिल्मों के गीत और कहानियां हमें जीवन के असली मायने सिखाती हैं – “जीवन एक मुसाफिर है, हर पल नया है, कुछ सीखने का।”
अखिलेश शुक्ला
सेवा निवृत्त प्राचार्य, लेखक, ब्लॉगर