आज भी मां ने पिताजी का वह टूटा हुआ चश्मा संदूक में सहेजकर रखा है।
अखिलेश शुक्ल: बात उस समय की है जब हम पांचों भाई बहन छोटे थे। सभी स्कूल में पढ़ रहे थे। मैं सबसे बड़ा था इसलिए पिताजी की सर्वाधिक डांट मुझे ही पड़ती थी। उस समय मेरी उम्र 12-13 वर्ष रही होगी। छोटे भाई बहन मेरे निर्देशन में पढ़ाई किया करते थे। उन्हीं दिनों पिताजी ने यह चश्मा नगर के जाने माने ऑप्टीशियन से बनवाया था।
यह बात अस्सी के दशक की है। उस समय का माहौल आज के समान आधुनिक नहीं था। तब गली मोहल्ले में रहने वालों का आपसी सामंजस्य काबिले गौर था। पिताजी का रहन सहन एकदम सीधा सादा था। वे सफेद-झक्क कुत्र्ता पजामा पहनते थे। मैंने उनके पास दो जोड़े कपड़े से अधिक कभी नहीं देखे थे। वे प्रातः उठकर कपड़े धोते व सुखाते थे। उसके पश्चात स्वयं अपने हाथोें से प्रेस कर पहनते और स्कूल जाते थे। उनकी इस तरह की गतिविधियों हम सब दूर से ही निहारा करतेे थे। उस वक्त उनके सादगीपूर्ण रहन सहन पर हर कोई नतमस्तक हो जाया करता था।
उन्हीं दिनों उन्हें सिर दर्द की शिकायत रहने लगी थी। वे हमेशा मां को बताते थे कि उन्हें पढ़ते वक्त आंखों से पानी आने लगता है। मां के सुझाव पर दो-तीन महिने घरेलु इलाज का सिलसिला चलता। कभी देसी कपूर नारियल के तेल में मिलाकर पिताजी के सिर की मालिश की जाती। तो कभी वे घर के पिछवाड़े नंगे पैर दूब पर घूमते। कभी नाई आकर सिर की मालिश कर जाता। कोई कहता मास्साब आपको आधा शीशी है तो कोई कुछ और सलाह देता। पिताजी को विश्वास था कि ब्लड़ पेशर हो नहीं सकता। इसलिए उसकी जांच करवाने में उन्होंने कभी रूचि नहीं ली थी। वर्ष भर टोने टोटके चले, झाड़ फूंक की गई। किसी ने सुझाव दिया हर बुधवार घर दरवाजे की डेहरी पर बैठकर जलेबी खाओ। कुछ ने घर मंे भूत पलीत होने की आशंका जाहिर की। इतने पर भी सिर दर्द न तो कम हुआ और न ही आंखों से पानी आना बंद हुआ।
उस वर्ष ग्रीष्म ऋतु में अक्षय तृतीया के आसपास शाला के प्राचार्य महोदय घर पधारे थे। मां भगवान वाले कमरे में मंदिर के सामने बैठी पूजा कर रही थीं। उस दिन अक्षय तृतीया के पूजन के लिए एक छोटे से घड़े के उपर खरबूज रखकर उस पर हल्दी अक्षत छिटकने के पश्चात वे बाहर आयीं। बडे़ सर को सामने पाते ही सिर ढककर उनका अभिवादन किया। उसके पश्चात उन्हें आदर के साथ दालान में पड़ी कुर्सी पर बैठाया। पिताजी नित्यकर्म में व्यस्त थे इसलिए उन्हंे बाहर आने में समय लग रहा था। तब मां ने ही प्राचार्य सर से बातचीत का सिलसिला जारी रखा था। उन्होंने बातों ही बातों में पिताजी के सिर दर्द व आंखों से पानी आने की बात सर को बताई थी। उन्होंने दुखी मन से पिताजी की समस्या रखते हुए उसका समाधान करने का भी अनुरोध किया था।
उस रोज मां की अनुनय विनय से बड़े सर पसीज गए थे। उन्होंने पिताजी को सलाह दी कि वे किसी अच्छे आंखों के डाॅक्टर से ईलाज कराएं। उनके बहुत समझाने पर आखिरकार एक दिन प्रिसिंपल सर पिताजी को साथ लेकर आंखों के डाॅक्टर के पास गए तब कहीं जाकर यह चश्मा बना था। पिताजी की आंखों की जांच होने के एक सप्ताह पश्चात उनकी आंखों पर एक सादा सा चश्मा था। उस चश्में में न तो गांधी जी के चश्में जैसा अक्श था और न ही सुभाष चंद्र बोस जैसी आक्रमकता। न वह चश्मा पूर्णतः सत्याग्रही था और न ही आक्रमक। वह चश्मा आजादी के पूर्व स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा उपयोग में लाए गए चश्मांें के समान था। जिसमें वतन के आजाद होने की छटपटाहट दिखाइ्र्र देती थी। वह एक ऐसा चश्मा था जो पिताजी की विचारधारा व्यक्त करता था। उसका रूप आधुनिक तो नहीं था पर बिलकुल प्राचीन भी नहीं था। वह चश्मा तो पिताजी का चश्मा ही था। एकदम उनके स्वभाव व व्यक्तित्व पर पूरी तरह से खरा उतरता हुआ। वह धीरे धीरे उनके व्यक्तित्व की पहचान बन गया था। लगता जैसे पिताजी के समान चश्मा भी दिखने में उपर से कठोर हो और अंदर से कोमल मुलायम। किसी नारियल के समान।
पिताजी जब भी उस चश्मे से देखते हम भाई बहन एक बार तो डर जाया करते थे। लेकिन अगले ही क्षण उनकी जबान से निकले शब्द भविष्य के लिए हमें समझाइश देने लगते। वे हमेशा हम पांचों के भले बुरे का बोध कराते रहते थे। उनकी बातें केवल मैं ही अच्छी तरह से समझ पाता था। शेष भाई बहन तो केवल मूक दर्शक बने रह कर उनकी ओर ताकते रहते थे। वे प्रातः रोज चश्में को अच्छी तरह से साफ करने के बाद पूजाग्रह मंे जाकर सुंदरकाण्ड का पाठ किया करते थे। उस समय किसी को भी उनके पास जाने की इजाजत नहीं होती थी। कोई यदि भूले भटके पहंुच जाए तो पिताजी उसे चश्में में से घूरते हुए डपटते थे। उस वक्त अच्छे अच्छे तीसमार खां उनसे खौफ खाते थे। वे नियम से शाम को लोक गीत तथा भजन अवश्य गाते थे। गाते हुए बीच बीच में वे अपने चश्मे को कुरते की किनारे से साफ करते रहते थे। मां उन्हें हमेशा कहा करती थीं कि जब चश्माघर के अंदर चश्मा साफ करने का कपड़ा है तो फिर वे उसका प्रयोग क्यों नहीं करते? पिताजी मां की इस बात पर यह कहकर विराम लगा देते कि तुम तो हो तुम ही करो इसकी देखभाल मुझसे व्यस्तता के कारण यह नहीं होगा। हारमोनियम बजाते हुए तन्मय होकर जब वे राग रागनियों पर तान जमाते तो राहगीर भी खड़े होकर पिताजी के गाने की तारीफ करना नहीं भूलते थे। शाम का रियाज हो या प्रातः सुंदर काण्ड का पाठ पिताजी के बोलचाल व व्यक्तित्व मंे उसका प्रभाव साफ झलकता था।
पिताजी का चश्मा छूने की किसी को अनुमति नहीं थी। केवल मां ही उनका चश्मा सहेजकर रखती थीं। वे ही उस चश्में की साफ सफाई व देखरेख भी करतीं थीं। चश्में को गीले कपड़े से पोछना व उसे ऐनक घर में रखना उन्हीं के जिम्मे था। हम भाई बहन अकसर मां से चश्में के बारे मंे तरह तरह के प्रश्न किया करते थे। उसे लगाने पर कैसा दिखता है? अक्षर कितने बड़े दिखते हैं? क्या आदमी हाथी जितना बड़ा दिखने लगता है? आदि और कई तरह के सवाल हमारे द्वारा पूछे जाते थे। और कई प्रश्न तो ऐसे होते थे कि जिनके उत्तर मां के पास भी नहीं रहा करते थे और न ही उन्हें उत्तर देने का समय ही होता था।
पिताजी की उम्र 55 के आसपास हो चुकी थी। उनके अधपके बालों ने उन्हें और भी गंभीर बना दिया था। उनकी पौशाक भी आयु के अनुकूल थी। ऊपर से चश्में ने गंभीरता बढ़ाने में भरपूर योगदान दिया था। चश्में की वजह से नगर में उनका सम्मान और भी अधिक बढ़ गया था। वे जहां भी जाते लोग अदब से उठ खड़े होते। लोग पिताजी का सम्मान आइये गुरूजी कहकर करते थे। सभी लोग उनसे देश की राजनीति, सामाजिक व सांस्कृतिक महत्व के विषय पर चर्चा करते थे। पिताजी अध्ययनशील थे ही इसलिए ऐसा सटीक विश्लेषण करते की सुनने वाले हमेशा के लिए उनके समर्थक बन जाते थे। उनके चश्में के पीछे से झांकती हुई अनुभवी आंखें हर एक को अपना मुरीद बना लिया करती थीं।
एक बार ऐसा वाकया हुआ जिसने हम सब भाई बहनों के जीवन मंे आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। मैं व मेरी दो बहनें उस वक्त स्थानीय काॅलेज में पढ़ रहे थे। दोनों छोटे भाई पिताजी के ही स्कूल में नवीं-दसवीं के छात्र थे। पिताजी रोज ही प्रातः भ्रमण के लिए जाया करते थे। वे उस समय चश्मा नहीं लगाया करते थे। उन्होंने कहीं पढ़ा था कि ओस पर नंगे पैर चलते समय चश्मा लगाने की आवश्यकता नहीं है। इसी पढ़ी हुई बात पर अमल वे कई वर्ष से कर रहे थे। छोटे भाई ने एक दिन कौतूहलवश पिताजी का चश्मा निकाल कर पहन लिया। वह उसे पहनकर हम सब भाई बहनों को दिखाता रहा। वह नटखट तो था ही इसलिए पिताजी के हावभाव की नकल भी कर रहा था। हम सब उसकी हरकतें देख देख कर हंसते हुए लोटपोट हो रहे थे। उसी समय पिताजी का प्रातः भ्रमण के पश्चात घर लौटना हुआ। छोटा भाई उन्हें देखकर घबरा गया। हम चारों भी एकदम सहम गए। इसी घबराहट में पिताजी का चश्मा फर्श पर गिरकर टूट गया। हम पांचों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। मां भी कमरें में सहमी हुई एक तरफ खड़ी थी। उस दिन पिताजी ने वह चश्मा उठाकर अपने कुर्ते के छोर से साफ किया। उसे अपनी नाक पर रखकर हमारी ओर देखा। वे लगातार दो तीन मिनिट तक घूरते रहे। उन्होंने केवल इतना कहा कि अपने आप को इतना योग्य बना लो कि तुम्हें किसी के चश्में की जरूरत ही न पड़े। इतना कहकर वे वहां से चले गए। हम पांचों भाई बहन रूआंसे खड़े थे। मां, पिताजी के पीछे पीछे गई व उन्होेंने बच्चों की तरफ से माॅफी मांगी। मैंने उस दिन पिताजी के गजब के संयम के दर्शन किए। हमें लग रहा था कि हम पांचों की अब खैर नहीं लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था। उस रोज के बाद से हम सब अपने अध्ययन के प्रति गंभीर हो गए थे।
—– —— —– —–
आज पिताजी के रिटायरमेंट का दिन था। तब तक मैं शासकीय सेवा में आ चुका था। चारों भाई बहन भी अच्छे अच्छे पदों पर थे। सभी कार्यालय से पिताजी को सम्मानपूर्वक घर लाने के लिए गए थे। विदाई समारोह में पिताजी की आंखों पर अभी भी वही चश्मा चढ़ा हुआ था। जिसे हम बचपन से देखते आ रहे थे। उस रोज ंकी विदाई पार्टी में नगर के गणमान्य नागरिकों ने पिताजी की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए उनकी प्रशंसा की थी। नगर की राजनीतिक सामाजिक व सांस्कृतिक हस्तियों ने उनके योगदान की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए उन्हें फूलमालाओं से लाद दिया था। उस वक्त पिताजी ने बहुत मुश्किल से यह सम्मान स्वीकार किया था। साथी शिक्षकों के बहुत अधिक कहने के बाद ही उन्होंने इसकी हामी भरी थी। उस रोज माईक के सामने पिताजी ने रूंधें गले से अपना भाषण दिया था। हाॅल में उनकी बातें सुनकर प्रत्येक व्यक्ति रो रहा था। वे अपने चश्में के माध्यम से अपनी कहानी कह रहे थे। उन्होंने उस चश्में को जीवन की सादगी से जोड़ते हुए स्वयं की सफलता का राज बताया था। उस समय हाॅल में बैठे सभी लोग उनके चश्में से निखरे व्यक्तित्व के सामने नतमस्तक थे।
विदाई समारोह के पश्चात पिताजी को एक सजी हुई कार में ड्रायवर के साथ वाली सीट पर बैठाया गया। पिछली सीट पर मां तथा दोनों बहनें बैठी हुई थीं। मैं तथा दोनों भाई एक अलग वाहन में थे। घर कार्यालय से लगभग 10 किमी की दूरी पर था। पिताजी दुखी थे साथ में हम सब भी गमगीन थे। ड्रायवर की आंखें भी आंसुओं से भीगीं हुई थीं।
सड़क पर सामान्य ट्रैफिक था। एक तीक्ष्ण मोड़ पर अचानक एक ट्राला सामने से आ गया। ड्रायवर ने कार बचाने की बहुत कोशिश की फिर भी कार उस भारी वाहन से जा भिडी। पिताजी के ठीक पीछे वाले वाहन में मैं तथा दोनों भाई थे। देखते ही देखते घटना स्थल पर लोगों की भीड़ लग गई थी। मां तथा दोनों बहनों को भी गहरी चोट आई थी। उस हादसे में पिताजी का घटना स्थल पर भी निधन हो गया था। उनका वर्षो पुराना चश्मा छिटकर कर दूर जा गिरा था और टूट गया था। उसे ढूंढ कर मैंने बाद में मां को दे दिया था। पिताजी की वह एक ऐसी निशानी थी जिसने कई लोगों का जीवन बदल दिया था। जब भी हम सब को पिताजी की याद आती है, वह चश्मा मां के संदूक से निकलवा लेते हैं। उस टूटे हुए चश्में को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए पिताजी की सादगी को याद करते हैं।
अखिलेश शुक्ल (Akhilesh Shukla)
ब्लागर, लेखक, समीक्षक
मोबाइल नंबर – 94244 87068