मनुष्य और पानी : ढेकली से सबमर्सिबल तक

Post by: Manju Thakur

– बाबूलाल दाहिया, पद्मश्री :

पानी के बिना किसी जीवधारी (Man and Water) की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह अलग बात है कि उसके ग्रहण करने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। जैसे सांप, छिपकली आदि कुछ जीवों को वह भोजन के साथ ही मिल जाता है। पर मनुष्य और पशुओं को भोजन अलग और पानी अलग ग्रहण करना पड़ता है।
मनुष्य का पानी (Man and Water) से काफी प्राचीनतम रिश्ता रहा है। शायद तभी से जब वह नर-बानर के रूप में आदिम अवस्था में था और पेड़ों तथा गुफाओं में रहता रहा होगा। क्योंकि हर जीव को अपने शरीर के तापमान को 37 डिग्री सेल्सियस बनाये रखने के लिए पानी की जरूरत प्रकृति प्रदत्त अनिवार्यता है। वर्ना अधिक ताप को शरीर के बर्दाश्त न करने से मृत्यु अवश्यंभावी है, इसलिए नर बानरों का समूह भी पानी के लिए मौका देख अपने परंपरागत पत्थर,लकड़ी के आयुध हाथ में लेकर बार-बार नदी, झील, झरनों में जाता रहा होगा।
किन्तु प्रकृति के ‘जीवहि जीवश्य भोजनम’ से भला वह कैसे बच सकता था? इसलिए हिंसक पशु शेर, चीते, भेडिय़े भी इसी ताक में रहते रहे होंगे कि कब यह पेड़ से उतरे और कब हम इसके सुस्वाद नमकीन कोमल मांस का निबाला बना लें। फिर मनुष्य के दो अदद फुर्सत के हाथ और एक अदद विलक्षण बुद्धि ने जोर मारा होगा। उसे जंगल में कहीं लौकी के बड़े-बड़े फल दिखे होंगे। उसने उन सूखे फलों में छेद कर रस्सी से उसे बांध अपने पानी लाने का पुख्ता साधन बनाया होगा ताकि वह बार-बार पेड़ से उतर कर पानी पीने के बजाय कुछ समय के लिए उसे संचित कर सके।
किन्तु इसमें एक समस्या यह थी कि पानी शीघ्र ही गर्म हो जाता रहा होगा। इधर उसने तब तक जानवरों से अपनी सुरक्षा के लिए अब गोफना, गुलेल से होते हुए मोगदर और हिरन के सींग में लाठी डाल भाले तक की यात्रा पूरी कर ली थी। इसलिए गुफा और पेड़ के बजाय अब नदियों के किनारे झोपड़ी बनाकर रहने लगा था। जिससे जानवर भी उस दो पाये से डरने लगे थे। कालांतर में जंगल में लगी आग से दीमक की बनाई बॉबी को पकाकर मजबूत शक्ल में ढलते देख उसकी अक्ल ने जोर मारा होगा और उसने पानी रखने के लिए मिट्टी के बर्तन बनाये होंगे। इसमें तुम्बे के बजाय उसे अधिक ठंडा पानी मिलने लगा होगा।
यह रही पानी की मनुष्य की आदिम यात्रा। जिसके अवशेष आजादी के पहले तक कई आदिवासी समुदायों के घरों में तुम्बे, तुम्बी के रूप में मौजूद थे। पर जब लौह अयस्क की खोज के बाद मनुष्य ने मैदान में कुआ खोद वहां बस्ती बसाया तो जंगल से तरकारियां लाने के बजाय सब्जी उगाने की ओर भी मनुष्य का ध्यान गया। उसने दो भुजाओं बाले मोटे लठ्ठे को कुए के पास गाड़ एक हाथ डेढ़ हाथ की लकड़ी से कुए की गहराई के बराबर की लंबी लकड़ी को जोड़ा और ढेकली नामक एक यंत्र बना डाला। फिर उसमें रस्सी बांध पानी खींच सिंचाई करने लगा। पर उसके फिदरती दिमाग को फिर भी चैन कहां?
उसने तरसा रहट आदि उपकरण बना अब सब्जियों के साथ-साथ अनाजों की भी सिंचाई करनी शुरू कर दी। तुम्बी से लेकर रहट तक की पानी की यह यात्रा तो ठीक ही थी। क्योंकि इस में प्रकृति के ऊपर कोई खास विपरीत असर नहीं पड़ता था। किन्तु अब यह इक्कीसवी सदी की जो पंप और सबमर्सिवल पंप की यात्रा हुई वह कुछ वर्षों में ही सत्यानासी सिद्ध होने लगी। क्यों कि इस से अब 1000 फीट तक का पानी खींच धरती को निपान किया जाने लगा है।
अब तो यह मनुष्य की करतूत हमें उन पंचतंत्र के ऋषि की याद दिला रही है जिनके बारे में कहा गया है कि एक ऋषि को जन्तुओं को जीवित कर लेने का मंत्र ज्ञात था। उन्हें शरारत सूझी और साथियों के रोकने के बाद भी उनने एक बाघ के अस्थि पंजर में हाड़ मांस चमड़ा आदि लगाने के बाद प्राण भी डाल दिया। फिर क्या था? वह बाघ उठा और ऋषि को तो खाया ही उनके कुछ मूर्ख साथियों को ही खा गया जो पेड़ में नहीं चढ़े थे।
आज वह विकास रूपी बाघ वैश्विक तपन और जलवायु परिवर्तन के रूप में मुंह बाए खड़ा है। किन्तु पता नहीं मनुष्य रूपी इस ऋषि को कब तक अपनी इस विनाश का रूप धारण कर रही तथा कथित विकास रूपी मूर्खता का अहसास होगा।

Babulal Dahiya

बाबूलाल दाहिया, पद्मश्री

(Babulal Dahiya, Padma Shri)

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