- मिलिन्द रोंघे
मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले में समुद्र सतह से 3600 फुट की ऊंचाई पर बसे अमरकंटक से एक पतली धार के रूप में निकली नर्मदा नदी की 1312 किलोमीटर की यात्रा के दौरान उसका घने जंगलों और पर्वतों के मध्य कूदने, फांदने और गिरने के साथ मार्ग परिवर्तन से उसका आकार और प्रकार बारम्बार बदलता जाता है, परिणामस्वरूप कहीं उसकी चौड़ाई लगभग बीस किलोमीटर तक हो जाती है, और वह अंतत: गुजरात के भरूच जिले में खंभात की खाड़ी में गिरती है। देश की पांचवी सबसे बड़ी और पूर्व से विंध्याचल के पर्वतों से होकर पश्चिम की ओर निकलने वाली नर्मदा नदी तीन राज्यों क्रमश: मध्य प्रदेश (1077 कि.मी.), महाराष्ट्र (74 कि.मी. इसमें 32 कि.मी. म.प्र. के साथ और 40 कि.मी. गुजरात के साथ) और गुजरात (161 कि.मी.) से होकर निकलती है। इसका जल-संग्रहण क्षेत्र 98,796 वर्ग कि.मी. है। नर्मदा नदी उपरोक्त राज्यों का आर्थिक प्रगति का महत्वपूर्ण कारक भी है कि नर्मदा नदी पर बनाये गये बांधों ने कृषकों की और कृषकों के माध्यम से समूचे प्रदेश की अर्थ व्यवस्था को समृद्धि दी है, इस दृष्टि से वह ‘जीवन रेखा’ है।
जीवन रेखा तो वह कुछ समय पूर्व हुई है, लेकिन मनुष्य के अध्यात्मिक समृद्धि की रेखा वह सदियों से रही है। इसके तट का मार्कण्डेय, भृगु, कपिल, जमदग्नि, कश्यप, गौतम, याज्ञवाल्क्य, वशिष्ठ, व्यास, गौतम, सनतकुमार, पुरूरवा, आदि अनेक ऋषियों ने अपने तप के लिए चुनाव किया। रामायणकालीन और महाभारतकालीन प्रसंग इसके तट पर घटित हुए हैै। इसके तटवर्ती नर्मदापुरम् (पहले होशंगाबाद) ओर भीमबैठका में लगभग 20 हजार पुराने शैलचित्र हैं तो ऊंचे-2 पर्वत और घने जंगल भी है। अमरकंटक के पास 1983 में स्थापित घुघुआ जीवाश्म पार्क है, यहां जो खुदाई में और सामान्य तौर पर जो पदार्थ मिले उसके शोध से यहां साढ़े छह करोड़ वर्ष पूर्व जीवन होना प्रतिपादित हुआ है। नर्मदा घाटी की सभ्यता के उत्कर्ष, विनाश और पुनर्निर्माण को पाठयक्रम में सम्मिलित करने का अनुरोध नर्मदांचल के प्रमुख शिक्षाविद् पं. रामलाल शर्मा ने अपने जीवन काल में किया था। देश की सात पवित्र नदियों में मानी जाने वाली नर्मदा के संबंध में मान्यता है कि इसके दर्शन से जो पुण्य प्राप्त होता है उसके लिए गंगाजी में नहाना पड़ता है।
अमरकंटक में मैकल पर्वत पर विराजमान देवों के देव महादेव की दिव्य देह के पसीने से गिरी बूंदों से उत्पन्न हुई नर्मदा नदी का उल्लेख स्कंद पुराण, पद्म पुराण, वायु पुराण, शिवपुराण, महाभारत, वशिष्ठ संहिता, ब्राह्मी संहिता आदि अनेक ग्रंथों में इसका उल्लेख हो चुका है। नर्मदा को ‘रेवा’, ‘सोमोदभवा’ या ‘मेकलसुता’ के नाम से भी जाना जाता है। इसे कहीं ‘नर्वदा” तो कहीं ‘नर्बदा” तो ब्रिटिशकालीन गजेटियरों में ‘नरबुडा” (NARBUDA) के नाम से उल्लेखित किया है। स्वामी ओंकारानंद नर्मदा के 15 नामोंं का उल्लेख ‘नर्मदा कल्पवल्ली’ में करते है जिनमें नर्मदा, त्रिकुटा, दक्षिण गंगा, महती, सुरसा (शोण) कृपा, मंदाकिनी, महार्णवा, रेवा, विपापा, विपाशा, विमला, करभा, रन्जना और वायुवाहिनी या बालुवाहिनी है। गंगा, नर्मदा और सरस्वती की तुलना करते हुए स्वामीजी कहते है कि गंगा, नर्मदा और सरस्वती लगभग एक जैसी है। भेद इतना है कि गंगा स्नान से, नर्मदा दर्शन, से एवं सरस्वती ध्यान चिंतन से समान फल प्रदान करती है।
यात्राओं एवं परिक्रमाओं के देश भारत में मंदिरों के साथ वृक्षों, पर्वतों की परिक्रमा होती है, लेकिन नदियों में सिर्फ नर्मदा ही एक मात्र नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है। शताब्दीयों पूर्व नर्मदा परिक्रमा एक साहसिक कार्य माना जाता था परंतु घने वनों के शनै: शनै कम होने, मानव बसाहट में वृद्धि और जीवन उपयोगी संसाधनों की उपलब्धता के कारण यात्रा पूर्व की तुलना में धीरे-2 सरल होती जा रही है। यात्रा के दौरान शूलपाणि के जंगलों का शूल भी कम होता जा रहा है।
विधान अनुसार परिक्रमा नंगे पैर की जाती है और यह तीन वर्ष तीन माह और तेरह दिन में होनी चाहिए, इस अवधि में चातुर्मास में यात्रा नहीं की जाती। लेकिन कुछ श्रद्धालु तीन से पांच माह में पैदल परिक्रमा करते हैं तो कुछ खण्ड परिक्रमा करते हैं जो कुछ दिन चलकर फिर कुछ दिन विश्राम लेते है और फिर यात्रा प्रारंभ करते है। पहले तो सिर्फ पैदल परिक्रमा होती थी लेकिन बुजुर्ग और अस्वस्थ श्रद्धालुओं के लिए वाहनों से भी परिक्रमा होने लगी। इनमें से कुछ दो पहिया वाहनों से कुछ चार पहिया वाहनों से तो कुछ बस से परिक्रमा करते हैं। अब परिक्रमावासियों ने सुविधानुसार अपने-2 नियम बना लिये हैं।
नर्मदा नदी पर आजीवन अध्ययन करने वाले डॉ. धर्मेन्द्र प्रसाद (जिन्होंने नर्मदाजी पर अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं।) दो प्रकार की विधियों का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार यात्रा किसी भी घाट से नर्मदाजी का जल झारी (बोतल) में लेकर पूजन करने के पश्चात प्रारंभ की जाती है और समापन भी वहीं होता है। इसे ‘रूण्ड विधि’ कहा जाता है। ‘जलेरी” विधि में अमरकंटक या रेवा सागर संगम से यात्रा प्रारंभ करके दक्षिण और उत्तर दोनों तटों पर दोबारा चलना पड़ता है। दोनों ही प्रकार की यात्राओं में नर्मदाजी को किसी भी स्थान पर पार करने का निषेध है। इसलिए ही अमरकंटक के आसपास अनेक जगह ‘परिक्रमवासियों के लिए’ ऐसा दिशा सूचक संकेतक अनेक स्थानों पर लगाये गये हैं ताकि परिक्रमावासी त्रुटिवश नर्मदाजी पार न करें। कुछ मानते हैं हर घाट पर जल परिवर्तन अर्थात झारी से कुछ जल घाट पर छोड़कर वहां का जल झारी में डालते हैं तो कुछ इस प्रथा को आवश्यक नहीं मानते।
यात्रा के दौरान इस बात का ध्यान रखा जाता है कि परिक्रमावासी के सीधे हाथ तरफ नर्मदाजी होना चाहिए। परिक्रमा समापन पर झारी का जल ओंकारेश्वर ज्योर्तिलिंग में चढ़ाया जाता है, इसके बाद क्षमता अनुसार कन्या भोज, ब्राम्हण भोज या भंडारा कराने की परंपरा भी मानी जाती है। इसकी अनिवार्यता नहीं है। अधिकांशत:पैदल परिक्रमावासी यात्रा के दौरान श्वेत वस्त्र ही पहनते हैं। सामान्यत: परिक्रमावासी समूह में चलते हैं जिनके लिए सभी महत्वपूर्ण घाटों पर धर्मशालाएं निर्मित हैं, तो अन्नक्षेत्र एवं सदाव्रत की व्यवस्था स्थानीय नागरिकों द्वारा की गयी है। नर्मदा के तट से लगे ग्रामीण क्षेत्र में जनजातीय ग्राम बहुतायत में है जिनमें परोपकार की भावना और देने की प्रवृत्ति सीखने लायक है। संभवत: यह नर्मदा के पानी का असर है।
प्रभुदत्त ब्रम्हचारीजी के अनुसार परिक्रमावासियों के लिए निम्न नियम है। (1) संकल्प एवं ब्राम्हण भोज के पश्चात परिक्रमा आरंभ करें। (2) नर्मदा में नित्य सिर से स्नान, नर्मदा जलपान करना चाहिए और स्त्रियां पर्व के दिन सिर से स्नान कर सकतीं हंै। (3) जहां नर्मदाजी का किनारा छोडऩा पड़े वहां नर्मदा जल साथ रखना चाहिए जिससे आचमन कर छींटा दे लें। (4) दक्षिण तट से 5 मील और उत्तर में साढ़े सात मील से दूर नहीं जाना चाहिए। (5) नर्मदाजी को यात्रा के मध्य में पार नहीं करना और टापुओं पर भी नहीं जायें। सहायक नदियों को एक बार पार करें। (6) आषाढ़ शुक्ल एकादशी (देवशयनी) से कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवउठनी) के मध्य की अवधि चातुर्मास कहलाती है जिसमें यात्रा निषेध है। (7) अधिकाधिक दो दिन की भोजन सामग्री साथ रखें (8) बाल व नख न काटें । वानप्रस्थी के रूप में रहें। (9) सदाचार, सत्य और ब्रम्हचर्य का दृढ़ता से पालन करें। (10) परिक्रमा समाप्ति पर हवन, पूजन, ब्राम्हण भोजन करावें। (11) परिक्रमा समाप्ति के एक वर्ष के भीतर ओंकारेश्वर पहुंचकर दर्र्शन अवश्य करें। नर्मदाभक्त प्रहलाद पटैल (मंत्री, म.प्र.शा.) मानते हंै कि चूंकि हम नर्मदाजी को मैया का स्वरूप मानते हैं, इसलिए इसमें नहाना नहीं चाहिए, न ही पैर का स्पर्र्श करना चाहिए। दूर से ही प्रणाम कर छिड़काव करना चाहिए। नहाना आवश्यक हो तो बाल्टी में पानी लेकर ऐसे स्थान पर नहायें कि वह जल पुन: नर्मदा में न मिले। भावना दोनों की ही गलत नहीं है, अंतर सिर्फ भाव का है।
नर्मदा के तट और तट से लगी भूमि तो अनेक संतों की तपोभूमि और कर्मभूमि भी रही है, अनेक स्थानों पर साधुओं के अखाड़े भी है। नर्मदा के आसपास का प्राकृतिक सौन्दर्य और छटा निराली है, घने वन है तो पर्वत श्रंखलाऐं हंै। परिक्रमावासियों को नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक में महर्षि दुर्वासा और महर्षि कपिल की तपोस्थली के दर्शन होते है। अमरकंटक जोहिला और सोन नद का उद्गम स्थल है, लेकिन दिशा दोनों की विपरीत हंै। जोहिला सहायक नदी है, मण्डला में दादा धनीराम की समाधि है, जबलपुर में विश्वप्रसिद्ध धुआंधार जलप्रपात है, नर्मदापुरम् (पहले होशंगाबाद) में नर्मदाजी के काठ पर बना अद्वितीय सेठानीघाट मिलता है तो यहीं स्टेशन के पास रामजी बाबा की समाधि के अलावा खर्राघाट पर एक मुखी दत्तमंदिर भी है, खोकसर में संत गौरीशंकर महाराज की समाधि है। ग्राम रावेरखेड़ी में बाजीराव पेशवा की समाधि है, ओंकारेश्वर में ज्योर्तिलिंग है।
मान्यता है कि षंकराचार्यजी ने नर्मदाष्टक की रचना यहीं पर की थी। महेश्वर (प्राचीन नाम महिश्मती) की ऐतिहासिकता अद्वितीय है, अहिल्याबाई होल्कर की कर्मभूमि में मंदिर ओर किले के साथ यहां सहस्त्रधारा घाट जिसका उल्लेख वाल्मिकी रामायण के उत्तरकाण्ड में किया है के अनुसार कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन ने यही रावण को कैद किया था। नेमावर में भूमिज शैली में परमार कालीन सिद्धेश्वर मंदिर, के साथ ़ऋणमुक्तेश्वर मंदिर भी है, जिसमें चने की दाल चढ़ाने का विधान है ताकि पूर्वजों के ऋण से मुक्ति मिल सके। तेली भट्यान (बुजुर्ग) ग्राम में कुछ समय पूर्व गोलोकवासी हुए सियाराम बाबा का आश्रम है।
बकावा ग्राम शिवलिंग निर्माण के लिए प्रसिद्ध है प्रकाशा (महाराष्ट्र) के पुष्पदंतेश्वर मंदिर में शिवलिंग में सफेद गोल धार दिखती है जो प्राकृतिक रूप से जनेऊ का स्मरण कराती है। अंकलेश्वर के पास बुलबुला कुंड भी है। इस कुंड में नर्मदे हर का घोष करने पर बुलबुले निकलते हैं, जितनी जोर से घोष करेंगेे, उतनी तेजी से बुलबुले निकलेंगे। कटपुर या विमलेश्वर से समुद्र तट पर आते हंै। लगभग दो-तीन घंटे का समय नाव के इंतजार में क्योंकि तट पर पानी बढऩे पर ही नावें तट से आगे निकल पाती है और दो घंटे का समय समुद्री यात्रा में लगता है। करनाली में कुबेर भंडारी का मंदिर है, जिसके बारे में मान्यता है कि रावण से हार के बाद कुबेर ने पांच सिक्के यहीं छुपा कर रखे थे। गरूडेश्वर में दत्त मंदिर है जिसका महत्व गाणगापुर और नरसोबाडी से अधिक माना जाता है यहीं स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती (टेंबे स्वामी) की समाधि भी है। गरूडेश्वर से आगे टुआगांव में 52 कुंड है जिसके लगभग हर कुंड से निकलने वाले पानी का तापमान अलग-2 है। नर्मदा के तट पर अनेक मंदिर है, लगभग हर तट से किसी न किसी संत की कथा जुड़ी है। नर्मदा के अनेक तटों एवं उससे लगे ग्रामों में 10 से 13 सदी की हिदु देवी-देवताओं की मूर्तियां प्राप्त हुई है, और मंदिर भी है। शुद्ध अंत:करण से और भाव से नर्मदा परिक्रमा करने वाले को मैया किसी न किसी रूप में दर्शन देती हैं या मुसीबत में मदद करती है।
90 के दशक में अमृतलालजी वेगड़ कहते हैं कि ”मेरी यात्रा की कोई 25 वर्ष बाद भी पुनरावृत्ति नहीं कर सकेगा क्योंकि इस अवधि में नर्मदा पर कई बांध बन जाएंगे और इसका सैकडों मील लंबा तट जलमग्न हो जाएगा, अनेक गांव और पगडंडियां नहीं रहेंगी। पिछले 25 हजार वर्षों में जितना भूगोल नहीं बदला उतना आने वाले 25 वर्ष में बदल जाएगा।” इसलिए फिर कोई नया बांध बने, नर्मदाजी का भूगोल परिवर्तित हो,इसके पूर्व परिक्रमा करना मुझे जरूरी लगा।
द ग्रेंड एवेन्यु कालोनी,
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