कोविड-19 में बुद्ध जयंती का आना, विजय होने का मार्ग बताना है

Post by: Manju Thakur

विशेष आलेख : डॉ हंसा कमलेशआज चारों तरफ नकारात्मकता का माहौल है। कोविड-19 के संक्रमण ने हमारे ऊपर चारों तरफ से आक्रमण किया है। उसने हमारे मन मस्तिष्क को तो प्रभावित किया ही है ,साथ ही हमारे देश की और प्रत्येक इंसान की आर्थिक स्थिति को नेस्तनाबूद कर दिया है। सामाजिक सांस्कृतिक ताना-बाना पूरी तरह ध्वस्त हो गया है।
वैशाखी पूर्णिमा का कोविड-19 के संक्रमण में आना बहुत ही महत्वपूर्ण है। वैशाखी पूर्णिमा का पौराणिक महत्व तो है ही ,साथ ही इसका बुद्ध से भी गहरा संबंध है, क्योंकि बुद्ध का जन्म, बुध को बुद्धत्व की प्राप्ति और महापरिनिर्वाण यह तीनों भी वैशाखी पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। इसलिए इस बैसाखी पूर्णिमा का वर्तमान परिस्थितियों में और भी अधिक महत्व हो जाता है। इस दिन बुद्ध ने उपदेश देते हुए कहा था, जितने भी संस्कार हैं सब नाश होने वाले हैं। अतः प्रमाद रहित होकर अपना कल्याण करो। “अप्प दीपो भव” अपना प्रकाश स्वयं बनो।
सत्य भी है जब तक हम अपना प्रकाश स्वयं नहीं बनेंगे हम अपने आगे का मार्ग नहीं देख पाएंगे। सच आज महामारी से उत्पन्न तमाम समस्याओं ने हमारे चारों तरफ अंधकार के साम्राज्य को स्थापित कर दिया है। इस अंधकार के बीच हमें अपना प्रकाश स्वयं ही बनना होगा।
अंगुत्तर निकाय धम्मपद कथा के अनुसार वैशाली राज्य में तीव्र महामारी फैली हुई थी, मृत्यु का तांडव चल रहा था। लोगों को समझ में नहीं आ रहा था इससे कैसे बचा जाए। राजा चिंतित था। चारों तरफ मृत्यु का तांडव मचा हुआ था। भय और अविश्वास का वातावरण था, ठीक कोविड-19 के संक्रमण की तरह। बुद्ध वैशाली आए और उन्होंने यहां रतनसुत्त का उपदेश दिया। इस उपदेश में बुध्द ने जागृत अवस्था में रहने की बात कहते हुए नैराश्य और वैराग्य की तर्कसंगत व्याख्या की। बुध्द इन्हें सरल और व्यवहार में आने के लिए उपयोगी बनाते हैं।
गीता में जिसको स्थितप्रज्ञ और षड्दर्शनो में जिसे जीव मुक्त कहा गया है, वहीं बौद्ध धर्म का निर्वाण है। बुध्द के अनुसार निर्वाण वस्तुतः जीवन की वह स्थिति है जहां राग, द्वेष, मोह, स्व और पर का प्रवेश नहीं है।
बुध्द ने जिस धर्म का प्रवर्तन किया वह आचार प्रधान है और आचार और विचार से कैसी भी महामारी पर विजय प्राप्त की जा सकती है। यदि कोविड-19 के संक्रमण की महामारी से हमें बचना है और भविष्य में हमें इससे सुरक्षित रहना है तो हमें अपने आचरण पर और अपने विचार पर और अपनी जीवन पद्धति पर विचार करना ही होगा। मानव जीवन की समस्त वेदना और दुखों का कारण आचारहीनता ही है। तुलसीदास जी रामचरितमानस में कहते हैं “जहां सुमति तहां संपत्ति नाना, जहां कुमति तहं विपत्ति निदाना।”
बुध्द ने सुख की उपलब्धि के लिए कर्मों के सुधार पर बल दिया है। आज चारों तरफ नकारात्मकता का माहोल है। बुद्ध के उपदेशों से लोगों में भय अविश्वास दूर हुआ। लोग चैतन्य हुए और महामारी से संक्रमित वैशाली स्वस्थ होकर पुनः अपने वैभव को स्थापित करने में सफल हुआ। वैशाली के उत्थान के अनेक ऐतिहासिक और पुरातात्विक संदर्भ आज भी विद्यमान है।
हम अच्छी तरह जानते हैं बौद्ध दर्शन पूरी तरह यथार्थ में जीने की शिक्षा देता है। बुध्द के यथार्थ शिक्षण के अष्टांगिक मार्ग ही जीवन के आधार हैं। सम्यक दृष्टि ,सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कर्मात, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति ,सम्यक समाधि। 
बुद्ध कहते हैं कि समय और कर्म के चक्र का अटूट संबंध है। कर्म का चक्र समय के साथ साथ सदा घूमता रहता है। बुद्ध ने ज्ञान और भक्ति की अपेक्षा कर्म मार्ग की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। गीता की “सर्व भूत हितेरतः” की भावना ही बुद्ध की प्राणी मात्र की दया है।
इस तरह बुद्ध बहुजन हिताय व प्राणी मात्र की कल्याण कामना के लिए प्रयास रत रहे। यही कारण रहा कि बौद्ध कला की विषय वस्तु में भी लोक अनुराग की प्रधानता रही।
अतः यदि हमें इस महामारी में व्याप्त भय और विश्वास पर विजय प्राप्त करना है तो हमें अपने आचरण की शुद्धता पर, विचारों की पवित्रता पर और कर्म के सकारात्मक मार्ग पर जोर देना होगा।

hansa vyas
डॉ हंसा कमलेश
सदर बाजार होशंगाबाद
hansa.vyas@rediffmail.com
लेखिका वर्तमान में शासकीय नर्मदा महाविद्यालय होशंगाबाद में इतिहास की प्राध्यापक हैं। उच्च शिक्षा की सर्वोच्च उपाधि डी. लिट आपके पास है। आपकी समाज सेवा, शोध कार्य साथ ही उच्च शिक्षा में नवाचार में सक्रिय भागीदारी है। आप मोटिवेशनल स्पीकर और काउंसलर हैं।

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