वैश्विक महामारी कोविड-19 से मिली रहीं तकलीफें और सरकार की मूकदर्शिता अब सहनसीलता की सरहदें लांघ गयी हैं। आखिर सरकारें कब तक जनता के धैर्य की परीक्षा लेंगी। लगभग सभी सरकारें फ्लॉप हैं। राजनीति ने इस देश का कुछ फायदा किया है तो बड़ा नुकसान भी किया है। हरेक दल की अपनी सोच, जनसेवा का अपना तरीका होता है। बावजूद इसके जब राष्ट्र की जनता पर संकट आता है तो जिम्मेदारी राजनैतिक दल की दलगत भावना से ऊपर उठकर समग्र हो जाती है, सरकार की सबसे ज्यादा हो जाती है। तमाम शंकाओं को दरकिनार करके अपने ही तरीके से कोविड-19 के खतरों को कमतर आंकने से केन्द्र और राज्य सरकारों की आलोचना हो रही है। दरअसल, अब तक के प्रयासों और दावों को देखकर लगा कि सरकारें मुगालते में जी रही हैं, किस मुगालते में? पता नहीं। चुनावों में जनता ने वह मुगालता भी दूर कर ही दिया है।
जनता के धैर्य की परीक्षा ना लो सरकार! बहुत हो चुका अब सहन शक्ति के बाहर है। जब मरना है, तो लड़ कर मरें। सरकारी सनक और मुफलिसी में जीने से बेहतर है कि एक फाइटर की तरह सरहद पर सैनिकों में दिखने वाला जज्बा पैदा किया जाए। सरहद ही तो है, धैर्य और सहनशीलता की सरहद। उस पार जाना मतलब सारी सीमाएं तोड़ देना। और जब किसी सीमा को तोड़कर सरहदों को पार किया जाता है, तो जंग होती है। फिर चाहे वह किसी राष्ट्र के खिलाफ हो, व्यवस्था के खिलाफ या सरकारों के खिलाफ।
जब जनता राजनीतिक विचारधारा, सामाजिक ताना-बाना छोड़कर केवल और केवल जान बचाने के लिए सड़कों पर उतरेगी तब आपके पास विकल्प नहीं बचेंगे। आपको किस बात का गुमान है, मौन रहकर समस्याओं को यूं टालने से बेहतरी नहीं होती बल्कि और ज्यादा उलझ जाती है। आप किस राजनीतिक चश्मे से देख रहे हैं? क्या सिर्फ इसलिए संपूर्ण लॉकडाउन का निर्णय नहीं ले पा रहे, क्योंकि यह विपक्ष भी मांग कर रहा है? सर्वोच्च अदालतों ने भी इसके लिए इशारे किये हैं। अदालतों के सुझावों को यूं नजरअंदाज करना देश के लिए अच्छी परंपरा को जन्म देना नहीं है।
जागिये, सरकार। जनता भी सोई नहीं है, समय का इंतजार कर रही है। समय आने पर वह सारे फीलगुड सारे गणित बिगाडऩे की माद्दा रखती है।
अब तीसरी लहर की बातें हो रही हैं। दूसरी लहर ने देश के लाखों परिवारों का बड़ा नुकसान किया है। सिर से बुजुर्गों का आशीर्वाद वाला हाथ चला गया, बच्चों के लिए निवाला जुटाने वाला पिता, पत्नी को सौभाग्यवती कहलाने का हक चला गया। किसी का भरत जैसा भाई गया तो किसी का श्रवण कुमार जैसा बेटा। मां की बेटियां दूसरी बार विदा हो गयीं। बच्चों के सिर से मां का साया चला गया। अब और कितना, सहेंगे? कोई ठोस जवाब भी तो मिले। धैर्य रखने के प्रवचन कब तक सुनेंगे, कब तक व्यवस्था की खामियों से अस्पतालों में मनमानी सहेंगे, सारी पूंजी लुटाकर धैर्य कैसे रखा जाता है? जिनके पास लाख हैं, वह करोड़ बना रहा है, हजारों वाला लाख और सैंकड़ों वाला केवल कर्जदार बन रहा है। आखिर और कितना धैर्य रखें, कृपया बतायें सरकार। अब केवल जरूरत है, जनता बनकर सरकारों को जनशक्ति बताने की। हां! धैर्य रखा है, केवल इसलिए कि समय का इंतजार है। जैसे ही समय आयेगा, वह धैर्य की अधिकतम सीमा होगी।