सांस संकट में है। शुद्ध व ताजी हवा मिलना कठिन कार्य हो गया है। पहले गांवों में इसकी उम्मीद की जा सकती थी, लेकिन अब तो वहां भी न तो शुद्ध हवा की और ना ही शुद्ध खानपान की गारंटी दी जा सकती है। यानी बिगड़ता पर्यावरण अब चिंता का विषय नहीं बल्कि इसमें सुधार के कदम उठना जरूरी है। कदम उठ भी रहे हैं, लेकिन मनुष्य ने इसे केवल सरकार की जिम्मेदारी मान रखा है।
मनुष्य तो इतना लापरवाह हो चला है कि खुद के हर उपयोग की चीजों की उपलब्धता की जिम्मेदारी भी सरकार की मान चुका है, तभी तो जो चीज सस्ती मिलेगी, चाहे वह जहर ही क्यों न हो, उसका उपयोग करेगा।
यदि उसकी इस आदत पर सवाल उठाया जाए तो, जवाब मिलेगा कि ये तो सरकार को सोचना चाहिए कि वह शुद्ध चीजें उपलब्ध कराये। सही भी है, कि सरकार की भी कुछ जिम्मेदारी है। लेकिन, यदि सरकारी प्रयास नाकाफी हो रहे हैं तो वह हमारी ही लापरवाही की वजह से। बाजार में जहर मिलता है, लेकिन क्या उसे खरीदना, नहीं खरीदना हम पर निर्भर नहीं करता। बाजार में तो अच्छा सामान भी मिलता है, उसके लिए थोड़े ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है, जो चुका सकते हैं, कम से कम उनको तो चुकाना ही चाहिए।
पर्यावरण बिगडऩे के लिए कोई एक कारण नहीं है। प्रकृति से छेड़छाड़, वाहनों की अंधाधुंध तरीके से बढ़ती तादात, खेतों में रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग, जंगलों का कटना, नदियों से छेड़छाड़, सिंगल यूज प्लास्टिक का प्रयोग, फसल अवशेष जलाना, सीमेंट कांक्रीट बिछाना जैसे अनेक ऐसे कारण हैं, जो पर्यावरण बिगाड़ के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं। ये सभी हम मनुष्यों द्वारा पैदा किये कारण हैं, जिनका निवारण भी हमें ही करना है, कोई अन्य दुनिया से आकर कोई करने वाला नहीं है।
करना क्या चाहिए
पर्यावरण सुधार के लिए कोई बड़ा योगदान नहीं करना होगा। कुछ छोटी-छोटी चीजें हैं, जिनमें बदलाव करके हम अपनी सांसों को बचा सकते हैं। कोरोनाकाल में जब संसार थम गया था, हमने देखा कि प्रकृति भी थोड़ा मुस्करा ली थी, उसे भी चैन से सांस लेने का मौका मिला था।
इसके बाद क्या हुआ, हमने कोई भी सीख नहीं ली। फिर हमारी जिंदगी पहले की तरह बेपरवाह चल पड़ी है। पेड़ लगायें, केवल सुझाव बनकर रह गया है, जैसी जरूरत है, उस तरह से पौधरोपण नहीं हो रहा, केवल पौधे के साथ फोटो खिंचाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के बाद हम खुद को प्रकृति के हितैषी साबित करने की होड़ में लग जाते हैं और फिर उस पौधे की तरफ पलटकर भी नहीं देखते।
प्लास्टिक के बैग नहीं थे, तब भी जीवन था। लेकिन अब बिना प्लास्टिक जीवन की कल्पना करने से ये पीढ़ी कांप जाती है और थैला साथ रखना दुष्कर कार्य लगता है। खुद दुकानदार ही इसे बंद करना नहीं चाहते और ग्राहक नहीं मानता कहकर, इसका चलन अब भी बंद नहीं किया है।
हम यूज एंड थ्रो वाली जीवनशैली अपना चुके हैं, इसे छोडऩा होगा। जल का अंधाधुंध दोहन के साथ ही जल की बर्बादी से पीछे नहीं होते हैं, यह प्रवृति रोकनी होगी, नदियों, तालाबों को हमने ही कचराघर बनाये हैं, कोई बाहर से नहीं आया। हर वर्ष पिछले वर्ष से अधिक पैदावार करके मुनाफा कमाने का लालच न सिर्फ धरती को बंजर कर रहा है, बल्कि आमजन तो बाद में, बिगड़े पर्यावरण के कारण पहले खुद किसान ही बीमार हो रहा है।
किसान को जैविक और प्राकृतिक खेती की ओर लौटना होगा। कूड़ा-करकट, फसल अवशेष जलाने से बचना होगा, यदि सीमेंट-कांक्रीट की रोड बनाना बंद नहीं हुआ तो आने वाले समय में हमें मिट्टी की रोड बनवाना जरूरी हो जाएगा। कुल जमा, बात इतनी सी है कि पर्यावरण में बदलाव के लिए पहले खुद को बदलना होगा, सुधार की प्रक्रिया तभी शुरु होगी, जब हम खुद में सुधार करना प्रारंभ करेंगे।