जंगलों के अप्रत्याशित दोहन ने न सिर्फ प्रकृति का संतलन बिगाड़ा है, बल्कि वन्यजीवों की जिंदगी को भी प्रभावित किया है। मनुष्य वन्यजीवों के घर पहुंच गया है, उनके घर को उजाड़ा है, तो स्वभाविक ही है कि वन्यजीव भी अब मनुष्य के रहवासी इलाकों में आकर भोजन की तलाश करने लगे हैं। जंगलों के कटने से तापमान बढ़ रहा है और वनजा, यानी वनों में कलकल बहने वाली नदियों का शोर लगभग खत्म होने लगा है। खासकर गर्मियों में तो इन पहाड़ी नदियों में पानी ही नहीं बचता है। जंगल में जंगली जानवरों के खाने और पीने की चीजें खत्म होंगी तो जाहिर है, वह शहरों या मनुष्य आबादी वाले इलाकों की ओर पलायन करेगा। यही कारण है कि इन दिनों गांवों, शहरों और जंगलों से गुजरने वाले हाईवे किनारे जानवरों की मौजूदगी दिखाई देने लगी है। मनुष्य ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए इनकी जिंदगी भी दांव पर लगा रखी है। रोड किनारे या गांवों की तरफ आने से इनकी जिंदगी तक चली जाती है। रोड साइड में खाने की तलाश में आने वाले बंदरों की मौत वाहनों की चपेट में आने से होती है। जो लोग इन जानवरों पर दया करके खाने-पीने की चीजें रोड पर फैक देते और उसे खाने की लालच में जब जानवर आते हैं तो कई मर्तबा ये तेज रफ्तार वाहन की चपेट में आकर मर जाते हैं। उजड़ते हुए वनों के कारण जंगली जानवरों का झुंड इटारसी से भोपाल जाते वक्त बुदनी के बाद और फिर इटारसी से बैतूल जाते वक्त बागदेव क्षेत्र से दिखना शुरु हो जाता है। अपनी भूख और प्यास बुझाने आज यह जंगली जानवर हाईवे पर विचरण करने को विवश हैं और उसके लिए मनुष्य द्वारा फैकी जाने वाली खानेपीने की चीजों पर आश्रित हैं, जबकि जब जंगल घने थे और मनुष्य ने स्वार्थवश उनको उजाड़ा नहीं था, इनको जंगलों में ही अपनी भूख शांत करने के लिए चीजें मिल जाती थीं।
जंगलों के बेतहाशा दोहन करने से जंगलों में प्राकृतिक जल के स्रोत एवं भोजन की भारी कमी हो गयी और वन्यजीव अपनी भूख और प्यास बुझाने आबादी की ओर आने लगे। जंगल लगातार कम हो रहे हैं। भोजन की तलाश में जंगली जानवर मानव बस्तियों में आने लगे हैं। ये जानवर इंसानों पर हमले भी कर देते हैं, जिनमें शेर, तेंदुए जैसे जीव शामिल हैं। खाने की तलाश में गांव-शहरों में घुसकर पशुओं को निशाना बना रहे हैं। सामान्यत: जंगली जानवर गांव-कस्बों में पालतू पशुओं का शिकार करने के लिए घुसते हैं। गर्मियों का सीजन आ रहा है, जब जंगलों में पीने के लिए पानी नहीं होगा। ऐसे में जंगली जानवरों के आबादी की तरफ आने की घटनाएं पुन: प्रारंभ हो जाएंगी। पिछली गर्मियों में हमने देखा था कि कोरोनाकाल में लगे लॉक डाउन में जब सड़कों पर वाहन भी नहीं थे, मनुष्यों पर आश्रिम हो चुके बंदर बड़ी मात्रा में हाईवे किनारे बैठकर मनुष्यों का इंतजार करते रहते थे, कि कोई खाना लेकर आएगा और उनकी भूख मिटाएगा। कुछ सेवाभावी लोगों ने यह किया भी था। लेकिन, हजारों की संख्या में उपस्थित इन बंदरों की भूख कुछ लोग कैसे मिटा सकते थे। जरूरत इस बात की है कि इनके प्राकृति घर में ही इनके खाने-पीने की चीजें उपलब्ध करायी जाए। यानी जंगलों में फलदार पौधे लगाने की जरूरत है, खत्म होने की कगार पर पहुंच चुकी नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए पौधरोपण करके वृक्षों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है, ताकि उन वृक्षों की जड़ों में रहने वाला पानी रिस-रिसकर नदियों को जीवनदान देता रहे। इसके लिए केवल सरकार की तरफ देखने से काम नहीं चलेगा बल्कि सरकार की मदद से कुछ संगठनों को आगे आकर इसे अभियान के रूप में चलाना होगा तभी आने वाले एक दशक में इसके परिणाम दिखने प्रारंभ होंगे, यह एक दिन की बात या चमत्कार नहीं है। यदि अब नहीं किया तो आने वाले वर्ष और भयावह होंगे, मनुष्यों के लिए भी और वन्य प्राणियों के लिए भी। क्योंकि विकास के नाम पर काटे जा रहे पेड़, फिर दोबारा लगाये नहीं जा रहे हैं, केवल जीवन को सरल बनाने के नाम पर जीवन से खिलवाड़ ही किया जा रहा है।