इनका संपूर्ण जीवन राष्ट्र भाषा प्रचार, समाज सुधार, राष्ट्र जागरण, पत्रकारिता को समर्पित था

Post by: Rohit Nage

  • बालकृष्ण मालवीय

इटारसी। माखनलाल चतुर्वेदी जी की स्मृति में, चाह नहीं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं। इन पंक्तियों को कौन नहीं जानता? इनके रचयिता नर्मदा अंचल के कवि साहित्यकार जिनमें देश भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी, देशभक्ति का जुनून इनके सर चढ़कर बोलता था। महान राष्ट्रवादी माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को ग्राम बाबई (अब माखन नगर) में हुआ था।

नर्मदांचल साहित्य जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र के रूप में साहित्य जगत को प्रकाशित करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, गद्य में साहित्य देवता, आधुनिक कविता में एक भारतीय आत्मा और साहित्यकारों में दादा एवं माखन दादा के नाम से विख्यात थे। इनका संपूर्ण जीवन राष्ट्र भाषा प्रचार प्रसार, समाज सुधार, राष्ट्र जागरण, पत्रकारिता को समर्पित था। कर्मवीर, प्रभा, प्रताप के आप संपादक रहे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी आप रहे। साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण पुरस्कार से भी आप नवाजे गए। भारत सरकार ने इन्हें पद्म भूषण से अलंकृत तो किया, लेकिन राष्ट्रभाषा पर आघात करने वाला राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में 1967 को यह सम्मान इन्होंने लौटा दिया।

ब्रिटिश राज्य में समाचार पत्र प्रारंभ करने के पहले मजिस्ट्रेट से अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था और समाचार पत्र का उद्देश्य भी स्पष्ट करना होता था। एक बार की बात है, कर्मवीर की अनुमति के लिए चतुर्वेदी जी जबलपुर गए। मजिस्ट्रेट थे मिस्टर मिथाइस को आवेदन नहीं दिया, सिर्फ बातचीत की। मजिस्ट्रेट मिथाईस ने पूछा कि एक अंग्रेजी साप्ताहिक के होते हुए आप हिंदी का साप्ताहिक क्यों निकालना चाहते है? तब माखन दादा ने कहा आपका अंग्रेजी पत्र तो दब्बू है, मैं वैसा पत्र नहीं निकालना चाहता। मैं एक ऐसा पत्र निकालना चाहता हूँ कि ब्रिटिश शासन चलते चलते रुक जाए।

मजिस्ट्रेट इनकी स्पष्टता से और साफ उद्देश्य से प्रभावित हुआ और बिना जमानत राशि के कर्मवीर पत्र निकालने की अनुमति दे दी। अंग्रेजों के विरुद्ध पत्रकारिता के माध्यम से इन्होंने कई आंदोलन चलाये। वर्ष 1920 में सागर के पास रतौना में अंग्रेजी सरकार ने एक कत्ल खाना खोलने का निर्णय लिया, इसमें प्रत्येक माह ढाई लाख गौवंश मारने की योजना थी, इनकी लागत 40 लाख 100 वर्ष पहले थी। वहां रेल लाइन डाली और प्रबंधन अमेरिका की कंपनी को दिया। यह कंपनी अंग्रेजों को बीफ निर्यात करती। एक यात्रा के दौरान माखनलाल जी ने यह विज्ञापन पढ़ लिया। समाचार पत्र के माध्यम से आंदोलन शुरू कर दिया। दादा के प्रभाव से अंग्रेजों को यह निर्णय वापस लेना पड़ा।

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