Memories : होली तब और अब

Post by: Rohit Nage

– बाबूलाल दाहिया
होली (Holi) के इस त्योहार को मैं 50 के दशक से देखता चला आ रहा हूं। तब वह जमाना था जब बनावटी और दिखावा कुछ नहीं था। हम लोग महीनों से होली के आने का इंतजार करते। हर साल होली के समय पलास के फूल से जंगल लाल हो जाता तो समस्त साथी जाते और उसके फूल तोड़ कर पानी में मीज उसका रंग बनाते। ऐसा लगता जैसे इसी को देख किसी ने कहा हो कि-

हर्रा लगे न फिटकिरी पर रंग चोखा।
उस समय गांव में ही खूब बांस थे, अस्तु पिचकारी भी बिना पैसा बन जाती और खूब मौज मस्ती होती। पूरा गांव पलास एवं होली के उस रंग में रंग सा जाता। पर 7-8 दिन में वह रंग अपने आप उड़ जाता और कपड़े वैसे के वैसे। भाभियां शक्कर मिठाई के कृत्रिम नहीं वास्तविक लाख के कठुला बांधती और ढेबरी वाले कोयले को मुंह में पोत कर मुहा बन्दर सा बना देती।
उधर बसंत पंचमी से फाग की नगडिय़ा ठनकती तो बुढ़वा मंगल को ही बेचारी को आराम मिलता। प्राय: रोज ही फाग होती। कहीं-कहीं तो पिता पुत्र एक ही फड़ में बैठ कर फाग गाते जैसे फागुन सब के सिर में चढ़ कर मौज मना रहा हो। होली का डांड माघ की पूर्णमासी को ही गड़ जाता तो एक गांव से दूसरे गांव की ऊंची होली जलाने की होड़ सी लग जाती। पर अब सब कुछ देख कर अटपटा सा लगता है। रंग, अबीर, पिचकारी, कठुला, आदि सब कुछ बनावटी, होली मिलन भी बनावटी एवं मात्र औपचारिकता।
हंसी तो मुझे शहर की होली देख कर आती है, जहां 2-2 सौ कदम पर अनेक होलिकाओं का दहन होता है, किन्तु खरीदी हुई वेश कीमती लकड़ी से। जब कि हमारे गांव की संस्कृति में होलिका दहन में प्रह्लाद की पौराणिक कथा तो थी पर व्यावहारिक रूप में तो यह भी था कि प्राचीन समय में जब सिंचाई के साधन नहीं थे, तब लोग अक्सर गांव के समीप के ऊंचे खेतों में चने, मटर, अलसी और मसूर की खेती करते थे जिनमें कटीली झाडिय़ों की बाड़ लगानी पड़ती थी और यह होली के पहले पक जाते थे। बाड़ के कांटे गर्मी के आंधी बगड़ूर में उड़कर रास्ते में न आएं और लोगों के परेशानी के सबब बन अस्तु उन्हें होलिका के बहाने फागुन में ही जला दिया जाता था।
पर अब गांव के वही लोग शहर में अपनी परंपरा लेकर तो गए किन्तु मुख्य उद्देश्य गांव में ही छोड़ आये और अब लकड़ी खरीद कर होली जलाते हैं। कुछ शरारती तो पेड़ों की हरी डालियां ही काट कर होली में रख देते हैं। इसलिए मुझे अटपटा सा लगता है कि कहां से कहां पहुंच गए? आज होली है पर कहीं भी फाग नहीं।
बहरहाल आप लोगों को मैं अग्रज शिव कुमार अर्चन (Shiv Kumar Archana) जी के इस दोहे से बधाई दे रहा हूं कि-
जिनके गालों में नहीं, हम मलसके गुलाल।
उनसे अब मिलवाइयो, फागुन अगली साल।।

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