इटारसी। गोंदिया जिले की सालेकसा तहसील स्थित कचारगढ़ तीर्थ दर्शन के लिए दो दर्जन से अधिक आदिवासियों का दल आज तिलक सिंदूर से बड़ा देव की पूजा-अर्चना करके निकला है। इन तीर्थयात्रियों का जगह-जगह स्वागत किया। तिलक सिंदूर से निकले तीर्थयात्रियों का स्वागत ग्राम जमानी में किया।
जमानी स्थित शंकर मंदिर के पास आदिवासी विकास परिषद के ब्लाक अध्यक्ष सुखराम कमरे के नेतृत्व में तीर्थयात्रियों का स्वागत किया गया। शाम को शंकर मंदिर पथरोटा में इन सभी का स्वागत कार्यक्रम आयोजित किया। तीर्थयात्रियों का सफर आज रात को दस बजे इटारसी से ट्रेन से शुरू होगा। इसमें समाज के 25 लोग सम्मिलित हैं। उल्लेखनीय है कि आदिवासी परंपरा और उसके प्राचीन इतिहास के मुताबिक कचारगढ़ आदिवासियों का पवित्र स्थान है। यहां आदिवासियों के एक देव से 12 देवता तक का उद्गम स्थान माना जाता है। प्रतिवर्ष पवित्र भूमि पर दाई काली कंकाली का मेला आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दूर एवं क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी लोग अपनी परंपरागत वेशभूषा के साथ हिस्सा लेते हैं।
आदिवासी समाज की पदयात्रा का स्वागत
आदिवासी समाज की कचारगढ़ यात्रा का स्वागत कांग्रेस ने पुरानी इटारसी आचार्य मंगल भवन पर किया। इस अवसर पर वरिष्ठ कांग्रेसी अजय शुक्ला, संतोष गुरयानी, अवध पाण्डेय, मयूर जायसवाल, राजेन्द्र सिंह तोमर, राजकुमार उपाध्याय, बाबू चौधरी, नारायण सिंह ठाकुर, नरेश चौहान, अजय मिश्रा, अरविंद चंद्रवंशी, किशोर मैना, अभिषेक ओझा, सुधीर वर्मा, अजय राठौर, सोनू बकोरिया, ईशान शुक्ला शम्मी, संजय विंडोलो एवं अन्य ने विक्रम परते, अरूण प्रधान, आकाश कुशराम, तिलक सिंदूर समिति के संरक्षक सुरेन्द्र धुर्वे, बलदेव पुरुषोत्तम धुर्वे, मधुर, मनीषा धुर्वे, तारा बरकड़े, बलदेव तेकाम, विजय कावरे, वीरेश तुमराम का स्वागत किया।
इतिहासकार डॉ विनीत साहू बताते हैं कि नर्मदापुरम से प्रतिवर्ष होने वाली नर्मदापुरम-कचारगढ़ यात्रा सत्य, अहिंसा, प्रेम, सद्भाव और एकता की यात्रा कही जाने वाली यात्रा है। कचारगढ़ सालेकसा तहसील जिला गोंदिया महाराष्ट्र का गोंडियन आदिवासियों का आस्था का प्रमुख केंद्र है। यह समुद्र तल से 518 मीटर ऊंचाई पर स्थित छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र सीमा के नजदीक खूबसूरत घने जंगलों के मध्य स्थित एशिया महाद्वीप की सबसे बड़ी प्राकृतिक गुफा है। गोंदिया-दुर्ग रेलमार्ग पर सालेकसा रेलवे स्टेशन से स्थल मार्ग द्वारा दरेकशा, धनेगाव होते हुए कचारगढ़ पहुंचा जा सकता है ।
आदिवासी समुदाय के देवताओं के धर्म गुरु माने जाने वाले पारी कोपार लिंगो, हिरासुका ओर मां कली कंकाली के दर्शन करने प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा पर मेला लगता है जिसमे समाज के आस्थावान सगाजन देश के कोने कोने से कचारगढ़ आते हैं। इसे कोया पूनम महोत्सव यात्रा के नाम से भी जाना जाता है। कचारगढ़ गोंडों के एक देव से बारह देव का उद्गम स्थल भी माना जाता है मान्यता है कि धर्म गुरु पारी कोपार लिंगो के 12 अनुयायियों और 750 प्रचारकों की मदद से गोंड संस्कृति को विभिन्न क्षेत्रों तक पहुंचाया इसी के बाद गोंड राजाओं ने छोटे छोटे राज्यों की स्थापना की ओर राज्य पद्धति को चार विभागों में बांटा लिया। यहां आदिवासी भक्तों के साथ पर्यटकों की भी संख्या प्रतिवर्ष बढऩे लगी है। वर्तमान में प्रतिवर्ष 4 से 5 लाख भक्त और पर्यटक कचारगढ़ पहुुचने लगे हैं ।
कछारगढ़ के बारे में उषा किरण आत्राम ओर सुनहरे सिंह ताराम के विचार, 1980 के बाद आदिवासी विद्यार्थी संघ के प्रयासों एवं गोंडी धर्माचार्य स्वर्गीय मोतीरावन कंकाली, शोधकर्ता केबी मर्सकोले के इस क्षेत्र की जानकारी के प्रचार, आदिवासी समाज के अन्य गुमनाम प्रचारकों के प्रयास के साथ ही 1984 में 5 सगाजनो द्वारा धनेगाव में झंडा फहराकर कचारगढ़ यात्रा की शुरुआत की। प्रतिवर्ष होने वाली यात्रा में आदिवासी गोंड समुदाय की संख्या बढऩे से इस विचार को मजबूती मिलने लगी है कि आदिवासी संस्कृति के रचनाकार शंभु, गौरी, कोपार लिंगो, हिरासुका ,33 कोट, 12 पेन ओर 750 कुल की शक्तियां यहां स्थित हैं। अत: नर्मदापुरम से कचारगढ़ यात्रा समग्र रूप से गोंड समाज के एकीकरण की नहीं अपितु सर्व आदिवासी समाज और सम्पूर्ण नर्मदापुरमवासियो का कचारगढ़ से एकीकार करते हुए सम्पूर्ण भारतवर्ष में अहिंसा, सत्य, प्रेम, सद्भाव ओर एकता के विचारों के प्रचार की यात्रा है।