बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः बनना फिल्म उमराव जान का

Post by: Rohit Nage

Untold tales of Bollywood: Making of the film Umrao Jaan
  • अजय कुमार शर्मा

2 जनवरी 1981 को रिलीज हुई फिल्म उमराव जान अपने समय की लोकप्रिय फिल्म है। इस फिल्म ने जहां उमराव जान के रूप में रेखा के अभिनय को नई ऊंचाइयां प्रदान की वहीं, आशा भोंसले की गायिकी और इसके संगीतकार खय्याम को लोकप्रियता के नए आयामों तक पहुंचाया। यह फिल्म मुज़फ़्फ़र अली की दूसरी फिल्म थी, इससे पहले वह गमन नामक बेहद संवेदनशील फिल्म बना चुके थे। इस फिल्म की एक ग़ज़ल “सीने में जलन,आखों में तूफ़ान सा क्यूं है…इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है” जिसे सुरेश वाडेकर ने गया था, बहुत लोकप्रिय हुई थी।

मुज़फ़्फ़र अली लखनऊ के जमींदार घराने में पैदा हुए और वह फिल्म निर्माण निर्देशन में आने से पहले कोलकाता की एक विज्ञापन कंपनी में काम किया करते थे। उस कंपनी के अध्यक्ष सत्यजित राय थे। उसके बाद मुज़फ़्फ़र अली एयर इंडिया के मुंबई ऑफिस के विज्ञापन और मार्केटिंग विभाग में रहे। मुंबई में रहते हुए ही उन्होंने नौकरी की खातिर अपने गांव-शहर छोड़ कर हज़ारों लोगों को दो जून की रोटी के लिए अनेकों संघर्ष करते देखा था। इन प्रवासियों के इसी संघर्ष को दिखाने के लिए उन्होंने गमन फिल्म का निर्माण निर्देशन किया था।

इस फिल्म के आर्थिक सहयोग फिल्म विकास निगम द्वारा उपलब्ध कराया गया था। उमराव जान की कथा उन तक पहुंची कला निदेशक बंसी चंद्रगुप्त, पटकथा-संवाद लेखक शमा जैदी और जावेद सिद्दिकी के जरिए। यह सभी 1976 में सत्यजित राय की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी की शूटिंग के दौरान लखनऊ में थे। तभी इन लोगों की चर्चा मिर्ज़ा हदी रुसवा के उपन्यास उमराव जान अदा के आधार पर फिल्म बनाने के बारे में हुई थी और चर्चा के आखिरी दिनों में मुज़फ़्फ़र अली भी इसमें शामिल हुए थे।

1899 में प्रकाशित इस काल्पनिक उपन्यास की नायिका उमराव जान लखनऊ शहर की एक मशहूर नाचने-गाने वाली थी। इस उपन्यास में 1857 से पहले के लखनऊ के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास को दर्शाया गया था। लखनऊ के होने और जमींदार घराने से ताल्लुक रखने के कारण लखनऊ की संस्कृति, रीति-रिवाज और आसपास के परिवेश से अच्छी तरह परिचित होने के कारण मुज़फ़्फ़र अली ने इस उपन्यास पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया।

सबसे पहले फिल्म के मुख्य पात्र उमराव जान के लिए उचित अभिनेत्री की तलाश शुरू हुई। मुज़फ़्फ़र अली ने सर्वप्रथम रेखा के बारे में ही सोचा। रेखा की पहचान जब तक एक संवेदनशील अभिनेत्री के रूप में बन चुकी थी। वह फिल्म के लिए काफी कम फीस पर तैयार हो गईं। रेखा के चयन के बाद मुज़फ़्फ़र जी ने फिल्म के अन्य पात्रों के रूप में नसरुद्दीन शाह, फारुख शेख, राज बब्बर, शौकत आज़मी, दीना पाठक, गजानन जागीरदार, लीला मिश्रा, भारत भूषण और सतीश शाह आदि कलाकारों का चयन किया। इसमें केवल फारुख शेख ही गमन फिल्म में उनके साथ काम कर चुके थे।

अब दूसरा सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था संगीत का। इसके लिए मुज़फ़्फ़र अली की पहली पसंद जयदेव थे जो उनकी फिल्म गमन में लोकप्रिय संगीत दे चुके थे। उसमें सुरेश वाडेकर की गाई ग़ज़ल के अलावा छाया गांगुली का गाया गीत “आपकी याद आती रही रात भर” के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गायिका का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। फिल्म में छह गज़लें और दो लोकगीत थे। ग़ज़लों के लेखन के लिए अलीगढ़ के मशहूर शायर शहरयार को चुना गया जो उनके लिए गमन में भी लिख चुके थे और उमराव जान पर उनकी पीएचडी थी। फिल्म के संगीत पर काम शुरू हुआ लेकिन कुछ दिनों बाद ही जयदेव फिल्म से अचानक अलग हो गए।

अंदाज़ा यह लगाया गया कि जयदेव ग़ज़लों को किसी और से गवाना चाहते थे और मुज़फ़्फ़र अली का मन था कि यह सभी गज़लें आशा भोसले से गवाईं जाएं। ख़ैर जयदेव के अलग होने के बाद संगीत की जिम्मेदारी खय्याम को सौंपी गई। खय्याम अपने संगीत पर बेहद मेहनत करने के लिए विख्यात थे। इस फिल्म के लिए भी उन्होंने 1856 – 57 के समय की संगीत शैली, ग़ज़ल कहने का तरीका, उस समय कौन-से वाद्य यंत्र थे, उनका बहुत बारीकी से अध्ययन किया और फिर संगीत बनाना तैयार किया।

सभी गीतों की धुन तैयार होने और गीतों की रिकॉर्डिंग में एक साल का समय लगा। सबसे पहले- दिल क्या चीज है- की धुन बनाकर रिकॉर्ड की गई। इसकी रिकॉर्डिंग के समय आशा जी ने खय्याम से शिकायत की कि जिस स्वर में मैं गाती हूं उससे यह काफी निचला स्वर है। मुझे गाने में मुश्किल होगी इसलिए पहले दिन की रिकॉर्डिंग कैंसिल करने की नौबत आ गई। लेकिन खय्याम जी ने कहा कि पहले मैं जिस स्वर में कह रहा हूं आप उसमें गा लें और बाद में जिस स्वर में आप चाहती हैं उसे रिकॉर्ड कर लिया जाएगा।

पहले गाना निचले स्वर में रिकॉर्ड किया गया और आशा जी ख़ुद अपनी आवाज सुन कर चकित रह गई और फिर सभी ग़ज़ले उन्होंने निचले स्केल पर ही गाई। इसमें एक ग़ज़ल “जिंदगी जब भी तेरी” तलत अज़ीज़ से गवाई गई थी जो किसी फिल्म के लिए गाई गई उनकी पहली ग़ज़ल थी। फिल्म के आरंभ में गीत “काहे को ब्याही विदेश” लोकगीत था जिसे खय्याम की पत्नी जगजीत कौर ने गया था। फिल्म की कथा पटकथा का काम शमा जैदी और जावेद सिद्दिकी ने मिलकर और संवाद जावेद सिद्दिकी ने लिखे थे। इसमें भी एक साल का समय लगा। इस बीच मुज़फ़्फ़र अली की पत्नी सुहासिनी अली ने फिल्म के हर चरित्र का गहराई से अध्ययन कर हर पात्र के हिसाब से वस्त्र और आभूषण तैयार किए।

महिला पात्रों के लिए असली मोतियों और नग से जड़े आभूषण बनवाए गए थे। शूटिंग आरंभ में होने से पहले रेखा ने उर्दू के भाषा के उच्चारण का और नृत्य का भी अभ्यास किया था। दो लंबे शेड्यूल में फिल्म की शूटिंग लखनऊ, कोटवारा, लखनऊ के आसपास के इलाकों और मुंबई के महबूब स्टूडियो में की गई। हवेली के शॉट लखनऊ की ही एक हवेली में शूट किए गए थे। इस बीच कला निर्देशक वंशी चंद्रगुप्त अलग हुए तो यह काम फिर मुजफ्फर अली ने ही संभाला। उमराव जान के कोठे के सारे सीन महबूब स्टूडियो में फिल्माए गए थे। पैसे की कमी के कारण फिल्म आरंभ होकर फाइनल प्रिंट निकलने तक दो साल लग गए। मुज़फ़्फ़र अली ने कलात्मक दृष्टि से कोई समझौता नहीं किया। फिल्म बहुत किफायत से बनाई गई थी इसलिए मात्र 35 लाख में बनकर तैयार हो गई।

चलते-चलते

जब यह फिल्म पहले-पहल रिलीज हुई तो दो-तीन सप्ताह के बाद सिनेमाघरों से उतर गई और कुछ खास नहीं चली लेकिन फिर धीरे-धीरे गीत लोकप्रिय होते रहे और फिल्म को आठ महीने के बाद जब दोबारा रिलीज किया गया तो यह फिल्म कई माह तक सिनेमाघरों में चलती रही और बहुत बड़ी हिट हुई। इस फिल्म में अभिनय के लिए रेखा को, संगीत के लिए खय्याम को, गायन के लिए आशा भोंसले को और कला निर्देशन के लिए बंसी चंद्रगुप्त को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। मुज़फ़्फ़र अली को निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार तो नहीं मिला लेकिन फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पुरस्कार उन्हें प्राप्त हुआ। इस फिल्म ने मुज़फ़्फ़र अली को नाम, पैसा, सम्मान और संतोष सभी कुछ दिया।

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