रंग खूं कें थे सिसकियों की थी बोली।
धमाकों से दिल्ली में यूँ जली होली।।
चार कांधों पर लौटे प्रियतम सुबह के गए।
चूडिय़ों संग पल भर में स्वप्न सभी टूट गए।।
नयनों का सावन बोला लौट आ हम जोली।
मन के वृंदावन में,प्रेम की जली होली।।
भैया लाने गए थे सखी रंग और गुलाल।
लौटे मौत की पिचकारी से होकर लाल-लाल।।
बहन बोली उठाएगा कौन अब मेरी डोली।
उमंगों के गांव में राखियों की जली होली।।
सिसक उठी ममता दूध जम गया स्तनों में।
आंख का तारा जा मिला गगन के सितारों में ।।
जाऊँगी किसके कांधो पर अब माँ बोली।
विश्वासों के घाट पर, सपनों की जली होली।।
नैतिकता धर्म जैसे शब्द किताबी हुए।
नेता पाखंडी , झूठे यश के खिताबी हुए।।
अधर्म की मंडी में सत्य की लगी बोली।
हिंसा की राजनीति में देश प्रेम की जली होली।।
हिन्दू मुस्लिम सिख लोग हर धर्म के शहीद हो गए।
देश प्रेम के बीज जमी में वे इस तरह बो गए।।
फसल खड़ी तो है भाई चारे की करोड़ों दिलों में।
मांग रही समर्पण का पानी पर सिसकियों में।।
आएगा आगे बोलो अब कौन माँ भारती बोली।
कर्तव्यों के कुरूक्षेत्र में सदभाव की जली होली।।
चंद्रकांत अग्रवाल, संप्रति नवमीं लाइन इटारसी, 9425668826