इटारसी। आज शहरी संस्कृति के चलन में अगर कुछ खो गए हैं तो वे हैं सावन के झूले, कजरी, मल्हार आदि। वैसे आजकल कोठियों के टैरेस में झूले तो लगे हैं, मगर सावन की फुहारें वहां से गायब हो गई हैं। शहर के लोग अब भी याद करते हैं सावन की रिमझिम फुहारें, झूलों की पींगे और साथ मिलकर गाए जाने वाले सरस गीतों की लडिय़ों को।
सावन सुनते ही जेहन में हरियाली छा जाती है। मन हरा-भरा हो जाता है। मेहंदी से हथेलियां सजने लगती हैं। डालियों पर उमंग के झूले पड़ जाते हैं। सावन का महीना स्वयं में एक विशेषता लिए हुए है, यह प्रकृति को तो सराबोर करता ही है साथ ही मन को भी भिगो देता है। लेकिन आज तेज रफ्तार जिंदगी ने हमारी कई परंपराओं और खुश रहने के तरीकों को पीछे छोड़ दिया है। कुछ लोग इन भूलती परंपराओं को पुनर्जीवित करने की कोशिश में जुटे हैं। ऐसा ही एक गांव शहर के नजदीक है, ग्राम जुझारपुर। यहां जुगल किशोर चैधरी के निवास के सामने करीब डेढ़ सदी पुराने देवतुल्य पीपल और बरगद के पेड़ हैं। रविवार को यहां श्रावणी झूला उत्सव मनाया गया। इस उत्सव में हर उम्र की आधा सैंकड़ा महिलाएं शामिल हुईं। सभी ने यहां स्थापित गुरु साहब बाबा की पूजा-अर्चना कर प्रसाद चढ़ाया और फिर शुरु हुआ झूला झूलने का दौर। करीब पचास फुट ऊंची पेड़ की शाखा पर रस्सी का झूला बांधा गया था। यहां एक वर्ष से लेकर 70 वर्ष तक की बुजुर्ग महिलाओं ने सावन उत्सव का आनंद उठाया। इस दौरान सामूहिक सावन गीत, लोकगीत भी गाये गये। यह आनंद उत्सव करीब दो घंटे चला।
झूला उत्सव के बाद सभी महिलाओं ने ढोलक, मंजीरे के साथ पारंपरिक भजनों की प्रस्तुति देकर माहौल में और अधिक ऊंचाई प्रदान की। इस दौरान ईश्वर से अच्छी बारिश के लिए प्रार्थना भी की गई। झूला उत्सव को लेकर चौधरी परिवार की बहू और शिक्षिका सरिता चौधरी ने कहा कि सावन के महीने में झूला झूलने की परंपरा रही है। पहले बगीचों व खलिहानों में पूरे माह झूला झूलते थे। लेकिन अब न तो बगीचे हैं और ना ही खलिहान। इसलिए हम अपने गांव के ही इस वृक्ष के नीचे सावन में झूला उत्सव और भजन गायन कर लेते हैं।
गांव की ही श्रीमती सीमा चौधरी बताती हैं कि हमारे प्रांगण में यह यह विशाल देव वृक्ष है। हम तो साल के बारह माह झूले का आनंद उठाते हैं। लेकिन सावन में परिवार और समाज की अन्य महिलाएं भी एकत्र होती हैं तो हम सामूहिक झूला उत्सव मनाते हैं। आयोजन में पथरोटा से आयी अनिता चौरे ने कहा कि हम बचपन में सावन माह में झूला उत्सव मनाते हैं और इंद्रदेव से अच्छी बारिश की कामना करते हैं। ये बताते हुए हुए उस जमाने में खो जाती हैं, जब बचपन में ऐसे आयोजन में शामिल होती थीं। आईटीआई की छात्रा प्रीति चौधरी कहती हैं कि यह हमारी प्राचीन भारतीय परंपरा है। सावन माह में सभी महिलाएं झूला झूलती थीं। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह लुप्त हो रही थी। लेकिन हमने फिर एक बार इस परंपरा को प्रारंभ किया है। यह उत्सव जब होता है तो प्रकृति भी प्रसन्न होती है। उससे बारिश भी होती है। कक्षा नवमी में पढऩे वाली छात्रा महक चौधरी ने कहा कि इस सामूहिक झूला उत्सव में बहुत अच्छा लगा। हमारी ईश्वर से प्रार्थना है कि अच्छी बारिश करें ताकि हमारे क्षेत्र में खराब हो रही फसलों को जीवन मिल सके।
अंजलि चौरे ने कहा कि हम आधुनिक हो गये हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी परंपराओं को ही भूल जाएं। इसलिए आज हमने यह प्रसाय किया है कि आधुनिकता के बावजूद परंपरा जीवित रहें। कालेज छात्रा तृप्ति चौधरी ने कहा कि आज लोग मोबाइल और टीवी में ऐसे उलझ गये हैं कि पता ही नहीं चलता है कि सावन लग गया है। भगवान कृष्ण भीे गोपियों के साथ झूला झूले थे, यह टीवी पर ही देखा था। लेकिन हमारी पारिवारिक परंपरा तो आज भी कायम है।
गांव की छोटीबाई पटेल का कहना है कि बचपन के समय गांवों में पेड़ों पर झूले झूलने का कार्यक्रम होता था। सावन और भादौं के दो माह सामूहिक रूप से पारंपरिक गीत गाये जाते थे तो भगवान इतने प्रसन्न होते थे कि दस-दस दिन पानी की झड़ी लग जाती थी। अब वह परंपरा क्या बंद हो गयी। अब न उतनी बारिश होती है न आज की लड़कियों के पास व्यस्त दिनचर्या में गीत और झूलों के लिए समय है। चौधरी परिवार ने इस परंपरा को कायम रखा है और डेढ़ सौ वर्ष पुराने वृक्ष को संजोकर रखा है ताकि यह परंपरा कायम रहे। झूला उत्सव कार्यक्रम को सफल बनाने में श्रीमती छाया राजकुमार चौधरी, आरती राहुल चौधरी, ललिता रामबाबू, जयश्री नवलकिशोर, लक्ष्मी उमेश चौरे एवं मीना गिरधारी चौरे का विशेष योगदान रहा।