प्राचीन समय में गांव-गांव में आल्हा गायकी का बड़ा प्रभाव था, जिसे ढोलक के साथ गाया जाता था। पर अंग्रेजों ने जब अठारहवी शताब्दी में इसका बामन लड़ाइयों का एक ग्रंथ ही प्रकाशित करा दिया तो यह लोगों द्वारा बांच कर सुनाया जाने लगा।
आल्हा मुख्यत: बरसात में सुनाया जाने वाला गीत काव्य है जिसके रचयिता टीकमगढ़ निवासी जगनिक नामक एक भाट कवि माने जाते हैं। यह आल्हा ऊदल नामक दो बहादुरों के युद्ध का काव्य है, जो महोबा के रहने वाले बनाफर राजपूत और राजा परिमर्द देव के सामन्त थे।
यूं तो आल्हा गायकी एक रासो गीत है, जिसमें आल्हा ऊदल के बहादुरी का बखान है। पर बुन्देली बोली में रचित इस रासो ग्रंथ की अनेक विशेषता है। यही करण था कि पृथीराज रासो, भीसलदेव रासो, खुमानदेव रासो आदि तमाम रासो ग्रन्थ तो लाइब्रेरियों की शोभा ही बढ़ाते रहे, पर आल्हा रासो अनेक बोलियों में अनुदित हो लगभग 600 वर्षों तक लोककंठ से मुखर होता रहा।
इस के लोकप्रियता का कुछ कारण इस प्रकार है।
– अन्य रासो ग्रन्थ के रचयिता जहां अपने पात्रों को श्रेष्ठ कुल के राजपूत, सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी आदि बताते हैं, वहीं आल्हा रासो का रचयिता अपने पात्रों को बार-बार ओछी जाति बनाफर राय, कहता है। उनके साथी भी कोई राजपूत नहीं, बल्कि साधारण लोग ही, धनुहा तेली, लला तमोली, मन्ना गुजर खुन खुन कोरी और मदन गड़रिया आदि हैं, पर बहादुर इतने कि बड़े-बड़े तलवार बाजों के दांत खट्टे कर दे। इसलिए उसमें जन सामान्य अपने को शामिल सा पाता है।
– साथियों की बहादुरी। जब जाति ओछी हो तो भला कौन राजपूत अपनी लड़की के विवाह के लिए मण्डप छवायेगा। पर बनाफरों का तो अपना वसूल था कि, जिसकी लड़की सुंदर देखी जोरा-जोरी करे विवाह। तो बनाफर लोग भाला बरछी, सांग और ढाल-तलवारों से ही मंडप को छा देते हैं। उधर उनके नाई बारी और विवाह कराने वाले पंडित भी इतने जांबाज हैं कि एक ओर तो वे विवाह की रस्म भी पूरी करते जाते तो दूसरी ओर बनाफर के जोरा जोरी विवाह से तमतमाया कोई राजपूत यदि वर को मारने के लिए तलवार निकालता है, तो वह नाई बारी और पंडित ढाल अड़ाकर उसका वार भी विफल करते रहते हैं।
एक सब से बड़ी विशेषता इस में यह है कि आल्हा गायकी प्रभाव वाले क्षेत्र में साम्प्रदायिक दंगे कभी नहीं हुए। इस का कारण यह रहा कि आल्हा ऊदल के अभिभावक ताल्हन सैयद नामक एक मुसलमान सरदार है। जिनके लिए आल्हा कहते हैं कि,
चाचा चाचा कह गोहरायो, चाचा मेरे तलन्सी राय।
जब से मर गए बाप हमारे, गोद तुम्हारी गये बैठाय।।
किन्तु न सिर्फ ताल्हन सैयद बल्कि उनके 22 बेटे भी आल्हा ऊदल की रक्षा के लिए हमेशा अपनी जान तक देने के लिए ततपर रहते हैं। आल्हा, ऊदल, मल्खान के विवाह की भी रचना काऱ ने बड़ी रोचक कथा गढ़ी है कि, उनकी सुंदरता और बहादुरी देख राजपूत कन्याएं खुद कहने लगती है कि,
यातो ब्याह होय आल्हा सग, या जीवन भर रहूं कुँवारि।
और खुद ही तोते के गले में बांधकर पत्र भिजवाती थी जिसमें यह भी लिखती थी कि, अगर तुम ने विवाह न किया तो कटार भोंक कर प्राण दे दूंगी। फलस्वरूप आल्हा, ऊदल, मलखान को साधू का वेष रख कर महलों में भीख मांगने के बहाने जाना पड़ता था। पर बाकी सब तो चेले रहते थे, महंत की भूमिका में वहां ताल्हन सैयद ही होते थे, और वही उन राजपूत कन्याओं को आश्वासन देते हैं कि बेटी मैं गंगा की सौगंध खा कर कहता हूं कि तेरा दो माह में विवाह करा दूंगा।
यंू तो आल्हा रासाो में तमाम अतिश्योक्ति पूर्ण बातें और अंधविश्वास भी है। पर हमारी गंगा जमुनी संस्कृति और सांझी विरासत को कायम रखने में इसका बहुत बड़ा योगदान रहा है। 40-50 के दशक में इसका इतना प्रभाव था कि अक्सर लोग अपने बेटों का नाम आल्हा, ऊदल, इन्दल और मल्खान रखते थे। जब सावन भादो में पानी की झड़ी लगती तो गांव वालों के मनोरंजन का यह मुख्य साधन था। पर समय के साथ वह भी समाप्त प्राय: है।
पद्मश्री बाबूलाल दाहिया