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आदिशंकराचार्य का अद्वैतसागर, जहां सभी भेद विलीन हुए

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  • अभिषेक तिवारी

आज आदिशंकराचार्य जयंती है। आचार्य शंकर के विचारोपदेश अद्वैतवाद अर्थात आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं। 32 वर्ष की अल्पायु में महावतारी युगपुरुष ने जो पुरुषार्थ किया, वह समूची भारतीय संस्कृति का संवाहक बन गया। उनका अद्वैत दर्शन, जिसने ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापर:’ का उद्घोष किया। न केवल दार्शनिक चिंतन की पराकाष्ठा था, अपितु सामाजिक समरसता का भी मूलमंत्र सिद्ध हुआ।

केरल में जन्मे आचार्य शंकर ने नर्मदा मैया के तट पर दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात संपूर्ण भारतवर्ष की धर्म दिग्विजय यात्रा के माध्यम से सनातन धर्म-संस्कृति में नवप्राण फूंककर जो महान योगदान दिया, वह भारतीय चेतना की महाधारा को प्रवाहपूर्ण बनाए हुए हैं। उनके द्वारा दशनामी संन्यासी परंपरा की स्थापना की गई जिसमें गिरि, पुरी, भारती आदि दस सम्प्रदायों के माध्यम से सभी वर्गों के लोगों को बिना किसी जातिगत भेदभाव के दीक्षा का अवसर प्रदान किया गया। उनके शिष्यों में मंडन मिश्र से लेकर हस्तामलक जैसे साधारण ग्वाले तक शामिल थे, जो उनकी समावेशी दृष्टि का प्रमाण था।

उन्होंने जाति के आधार पर भेद को अस्वीकार कर ज्ञान को ही मुक्ति का मार्ग घोषित किया। चारों दिशाओं में स्थापित मठों (शृंगेरी, द्वारका, ज्योतिर्मठ, गोवर्धन) के माध्यम से उन्होंने न केवल धार्मिक एकता स्थापित की वरन राष्ट्रीय अखंडता को भी सुदृढ़ किया। द्वादश ज्योतिर्लिंगों और पंच प्रयाग की यात्राओं ने सामान्य जन को धर्म से जोड़ा तो भगवद्गीता भाष्य, विवेकचूड़ामणि जैसे ग्रंथों ने ज्ञान की अविरल धारा प्रवाहित की। उनका यह कार्य इतना व्यापक था कि इस सुदृढ़ आधार पर कालांतर में हजारों वर्षों के विदेशी आक्रमणों और विधर्मी प्रभावों के बावजूद सनातन धर्म अपने मूल स्वरूप में टिका रहा।

‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति’ के माध्यम से उन्होंने समस्त विविधताओं के बीच एकता का संदेश दिया। आज जब हम जाति, संप्रदाय और क्षेत्रीयता के भेद से ऊपर उठकर सनातन धर्म की मूल भावना को समझने का प्रयास करते हैं, तो आदिशंकराचार्य का यही सार्वभौमिक दृष्टिकोण हमारा मार्गदर्शन करता है। उनकी विरासत न केवल हमें आत्मबोध की शिक्षा देती है, बल्कि एक ऐसे समाज के निर्माण की प्रेरणा भी देती है जहाँ हर व्यक्ति को अपनी आध्यात्मिक यात्रा में समान अवसर प्राप्त हैं।

इस पावन अवसर पर हम जगद्गुरु के चरणों में नमन करते हुए उनके संदेश – शिवो भूत्वा शिवं यजेत (स्वयं शिव बनकर शिव की उपासना करो) को आत्मसात करने का संकल्प लेते हैं। जयतु सनातन धर्म।। ओम नम: शिवाय ।। (चित्र में पुणे स्थित चिन्मय विभूति में प्रतिस्थापित आचार्य शंकर की मूर्ति)

Rohit Nage

Rohit Nage has 30 years' experience in the field of journalism. He has vast experience of writing articles, news story, sports news, political news.

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