विनोद कुशवाहा। इटारसी की साहित्यिक यात्रा का इतिहास बेहद पुराना और कई अभूतपूर्व घटनाओं से भरा पड़ा है। इस यात्रा के दौरान कई अनुपम पड़ाव आये और कितनी ही अद्भुत शख्सियत से शहर का सामना हुआ। इस सम्पूर्ण यात्रा का तो मैं साक्षी रहा नहीं न ही उस दौर की कतिपय शख्सियत से मेल मुलाकात कर सका। फिर भी कुछ पड़ावों पर तो मैं भी सबके साथ ठहरा हूं। कुछ हस्तियों के संपर्क में भी रहा हूं।
इस स्तम्भ के माध्यम से इन सबसे जरूर रूबरू कराऊंगा लेकिन फिलहाल बात उन कवियों को जो सरदार भी थे और असरदार भी। इनमें प्रमुख रूप से दो कवियों का नाम लिया जा सकता है। पहले स्वर्गीय सरदार गोपाल सिंह खालसा ‘ दर्द ‘ और दूसरे सरदार सुरजीत सिंह ‘जख्मी’। इनमें इस बार ज्यादातर हम चर्चा करेंगे सरदार गोपाल सिंह खालसा ‘दर्द’ की।
यूं तो उनका दूध डेयरी का काम था परंतु आज जहां गांधी जी की प्रतिमा है उनके सामने खालसा जी का कार्यालय था । उसे आप ” मानसरोवर ” का कार्यालय भी कह सकते हैं क्योंकि खालसा जी ‘ मानसरोवर ‘ संस्था से जुड़े हुए थे और गांधी वाचनालय के बाद हम सबके मिलने का ठिकाना वही था । संस्था का कोई भी कार्यक्रम हो उसके आयोजन का जिम्मा खालसा जी का ही रहता। इस नाते सारी भागदौड़ भी उन्हीं के पल्ले पड़ती। ” मानसरोवर ” साहित्यिक पत्रिका से लेकर साहित्यिक पत्रिका ‘ आयास ‘ तक का प्रकाशन उनके परिश्रम का ही प्रतिफल था।
सरदार सुरजीत सिंह ‘ जख्मी ‘ ने उन दिनों शायद लिखना शुरू नहीं किया था या शुरू किया भी हो तो वे सामने नहीं आए। वैसे उन्होंने मुक्तक लिखने से अपनी रचनात्मकता का प्रारंभ किया था। बाद में जख्मी जी ने गीत से लेकर गज़लें तक लिखीं। अब ये आलम है कि शीघ्र ही उनका गज़ल संग्रह भी आने वाला है। इन दिनों वे पूना में रहते हैं और उम्र के अस्सीवें दशक में प्रवेश के बावजूद आज भी सुरजीत सिंह ‘ जख्मी ‘ उतने ही रोमांटिक हैं उतने ही सक्रिय हैं जितने पहले थे।
जबकि स्वर्गीय सरदार गोपाल सिंह खालसा ‘ दर्द ‘ व्यंग्य लिखा करते थे और उनके व्यंग्य न केवल धारदार हुआ करते थे बल्कि उनमें पैनापन भी था। खालसा जी आम आदमी के कवि थे इसलिए वे हमेशा बोलचाल की भाषा में लिखते थ। सही मायने में ‘ दर्द ‘ साहब जन कवि थे । उनकी कविता की एक बानगी देखिये –
कैसा अजूबा
कैसा वेश ,
काली भैंस
दूध सफेद
वरिष्ठ साहित्यकार स्वर्गीय सी बी काब्जा कहा करते थे – व्यक्ति जो होता है उसको वैसा ही दिखना चाहिए। वैसा ही उसे होना भी चाहिए। सरदार स्वर्गीय गोपाल सिंह खालसा ‘ दर्द ‘ का सम्पूर्ण व्यक्तित्व काव्यात्मक था। वे बेहद संवेदनशील और विनम्र थे। सहज सरल।
वर्तमान में शहर में शर्मनाक खेमेबाजी चल रही है। एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रति स्पर्धा जारी है। कतिपय तथाकथित साहित्यकारों ने साहित्य में भी राजनेता का गंदा खेल शुरू कर दिया है। उनके अहं के चलते नगर की साहित्यिक गतिविधियां ठप्प हो गईं हैं। जिस इटारसी में सब हिलमिल कर रहते थे वहां कुछ लोगों ने एक – दूसरे की टांग खींचने का चलन शुरू कर दिया। कुछ कवियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो नाम और पैसा कमा लिया पर शहर की सृजनात्मकता मटियामेट कर दी। युवा पीढ़ी का भविष्य अंधकारमय कर दिया। दरअसल कुछेक बाहरी तत्वों ने भी नगर की रचनात्मक छवि को खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
ऐसे में स्वर्गीय विनयकुमार भारती, विपिन जोशी, डॉ चन्द्रकांत शास्त्री राजहंस, नत्थू सिंह चौहान, गोपाल सिंह खालसा दर्द, चतुर्भुज काब्जा, चांदमल चांद, बद्रीप्रसाद वर्मा, प्रेमशंकर चौधरी, सीताराम वर्मा, रवि पाण्डे अकेला आदि का स्मरण हो आना स्वभाविक है। 14 जून को स्वर्गीय चांद साहब की पुण्य तिथि है। नर्मदांचल परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।
विनोद कुशवाहा (Vinod Kushwaha)