गणतंत्र दिवस पर किसान आंदोलन के दौरान जो भी घटित हुआ, वह घटना किसान तो कतई नहीं कर सकते हैं। दरअसल, इसमें किसान संगठनों से जो चूक हुई है, वे आंदोलन को नियंत्रित नहीं कर सके और अपने बीच घुसे हिंसाप्रेमियों और देशद्रोही गतिविधि संचालित करने वालों की पहचान नहीं कर सके। लोकतंत्र में अहिंसात्मक तरीके से अपनी बात रखने का अधिकार सबको है। किसान संगठन यही कर रहे थे। सरकार ने भी पहले आंदोलन की परवाह नहीं कर उसे लंबा खिंचने दिया, फिर बातचीत के लिए किसानों को आमंत्रित किया। तब तक काफी देर हो चुकी थी। इस बीच किसानों ने ट्रैक्टर मार्च की घोषणा कर दी। गणतंत्र दिवस पर जो भी हुआ, उसे देखने से स्पष्ट लग रहा है कि उसकी पटकथा काफी पहले से लिखी जा रही थी। ऐसे तत्व किसानों को बरगलाने और ट्रैक्टर मार्च के लिए आसानी से तैयार कर पाये हैं। यानी आंदोलन किसानों के हाथों से निकलकर दहशत पसंद लोगों के हाथों में चला गया और किसान नेताओं के हाथ कुछ नहीं रहा। कहा जा रहा था, कि कृषि कानून के मामले में अब सरकार के सामने धर्मसंकट है, एक तरफ कुआ, दूसरी तरफ खायी है। लेकिन, आंदोलन का जो हश्र हुआ, उसे देखकर लगा कि कमोवेश यही स्थिति किसान नेताओं की बन गयी थी। वे भी कुछ तथाकथित किसानों के हाथों की कठपुतली बन गये थे। हो सकता है कि किसान आंदोलन को पहले फंड उपलब्ध कराके किसान नेताओं पर इतना दबाव बना दिया गया हो कि वे इसके आगे बेवश हो गये हों और कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं रहे हों।
अब करीब एक सप्ताह से अधिक समय बीतने को है। आंदोलन का जो हश्र हुआ, वह कतई अच्छा नहीं माना जा सकता है। सरकार किसान आंदोलन को दो हिस्सों में बांटने में सफल रही और दहशतपसंद लोग अपने मंसूबों में कामयाब हो गये। लेकिन, सवाल यह है कि किसानों के हाथ क्या लगा? वे पहले भी खाली हाथ थे, अब भी उनके हाथ में कुछ नहीं आया। राकेश टिकैत चाहे कितना भी अभिनय करके अपनी नाकामी को छिपाने का प्रयास करें, सच्चाई यह है कि देश को तोडऩे वाले हमें आपस में लड़ाकर कमजोर करने में कामयाब हो गये, सरकार बेवश रही और किसान इस लड़ाई में केवल उपयोग की वस्तु बनकर रह गये हैं। वक्त अब भी है, किसान सरकार से वार्ता की प्रक्रिया जारी रखेंगे और इसके समाधानकारक उपाये तलाशने की कोशिश करेंगे तो उनको कामयाबी मिल सकती है। दरअसल, वक्त लगता है, हर उलझी बात को सुलझाने में। बात केवल सरकार और किसानों के बीच होनी चाहिए और किसानों को भी केवल अपने हित की, अपने मन की और कृषि हित की बात करने में भरोसा करना चाहिए। किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली की यह घटना तारीख तो बन गयी, लेकिन इसे काला समय मानकर उससे उठे काले धुएं को साफ होने का इंतजार करें और वार्ता की प्रक्रिया दोबारा शुरु करने की कोशिश करें। किसान अपने बीच घुसे कुछ दलाल और बिचौलिये, स्वहित साधने वाले तथाकथित किसान नेताओं से भी सावधान रहें, ये ही वे लोग हैं जो अपना हित साधने के लिए आंदोलनों को हवा देते हैं और टकराव की नौबत तक आंदोलन को ले जाकर किसानों का हित नहीं होने देते हैं। इस प्रक्रिया में उनका तो खूब हित होता है, किसान छले जाते हैं।
किसान स्वयं समझे, पढ़े और जाने कि नये कृषि कानून किसानों का कितना हित और कितना अहित कर सकते हैं। किसी के बहकाने पर न जाएं, कानून का गहन अध्ययन करके ही कोई सोच बनायें। वे उपयोग नहीं होकर अपना खुद का वजूद स्थापित करने में कामयाब हो जाएंगे तो फिर किसी की इतनी हैसियत नहीं होगी कि वे उनको बहकाकर, लड़ाकर इस तरह की हरकतों से देश को कमजोर कर सकें। क्योंकि इस वक्त तो किसान दो फाड़ हो चुका है। एक वह है जो कृषि कानून के समर्थन में है, और दूसरा वह जो इसके खिलाफ। जो समर्थन में है, उनसे बात की जानी चाहिए कि कृषि कानून किस तरह से किसान हित में है, यदि वे समर्थन कर रहे हैं तो इसका ठोस आधार क्या है, जो विरोध कर रहे हैं, वे भी बतायें कि वे किस आधार पर इसे कृषक विरोधी बता रहे हैं। या फिर दोनों पक्ष खुद की सोच को दूसरों के पास गिरवी रखकर अपना ही नुकसान कर रहे हैं।
बहरहाल, रास्ता निकलता है। लेकिन, इसके लिए बातचीत की एक लंबी प्रक्रिया को अपनाना होगा। हरेक बिन्दु पर बात करनी होगी, अच्छा-बुरा समझना होगा। समझना इतना कठिन भी नहीं है, जितना प्रचारित किया गया। जरूरत है, केवल खुद से समझने की, न कि दूसरे से। जैसा अब तक होता आया लग रहा है।