Editorial : तरीके और भी हैं, व्यवस्था पर चोट के, जड़ों में मठा न डालें

Post by: Manju Thakur

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आपस में हैं हम सभी भाई। भारतीय इस देश की पहचान रही है, और उम्मीद की जाना चाहिए कि आगे भी रहेगी। जिस देश में हरेक धर्म, जाति, समाज को एकसाथ रहकर विकास करने की आजादी हो, वहां तांडव जैसी बेवसीरिज (Tandav Web Series) के माध्यम से किसी धर्मविशेष का सहारा लेकर किसी भी विषय पर कटाक्ष करने की आजादी नहीं दी जानी चाहिए। हिन्दू धर्म हमेशा से शांति और सौहाद्र्र का पक्षधर रहा है, इसका यह मतलब नहीं कि उससे उग्र होने की कल्पना ही नहीं की जाए। जब अति होती है तो सीधा-साधा इनसान भी उग्र हो सकता है, यह धर्म को माध्यम बनाकर कटाक्ष करने का तरीका और बाद में माफी मांग लेना कहां तक उचित है।
व्यवस्था पर कटाक्ष करना, किसी चीज से सहमत नहीं होने पर उसका जबाव देने के और भी कई तरीके हो सकते हैं, क्योंकि धर्म एक ऐसा विषय है जो लोगों की आस्था से जुड़ा होता है। फिर केवल एक हिन्दू धर्म को ही टारगेट करके इस तरह के प्रयोग क्यों किये जाते हैं, वह भी हिन्दोस्तां जैसे देश में जहां की रीत ही प्रीत है, वहां हिंसा को भड़काने का काम क्यों किया जाता है? कहीं इसके पीछे देश में दो धड़े करके विभाजनकारी नीतियां तो नहीं? क्या केवल धर्म और आस्था पर चोट करके ही बात करना सही है? अन्य कोई तरीका ऐसे लोगों के दिमाग में नहीं आता है? किसी भी चीज को विवादास्पद करना और फिर जब विवाद बहुत बढ़ जाए तो उसके लिए माफी मांग लेना केवल पब्लिसिटी स्टंट ही माना जा सकता है।
वेब सीरीज तांडव के मामले में ही ऐसा हुआ है। जब इसका विरोध चरम पर पहुंच गया और सरकार से इस पर बैन लगाने की मांग के साथ विभिन्न थानों में एफआईआर दर्ज होने लगी तो इसके निर्देशक और इसकी पूरी टीम ने उन दर्शकों से माफी मांग ली है, जिनकी भावनाएं इसके कुछ दृश्यों से आहत हुई हैं। जो संगठन इसका विरोध कर रहे हैं, उनका आरोप है, कि इसमें हिंदू देवताओं का उपहास उड़ाया है। क्या माफी के बाद विवाद का पटाक्षेप हो जाना चाहिए? लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है, जब ऐसे किसी विषय को लेकर हंगामा हुआ हो। इस तरह से पहले भी विरोध हुआ और राजनीति भी खूब हुई।
सवाल यह है कि इस तरह के विषयों को उठाया ही क्यों जाता है, जो विवाद पैदा करें। अपनी बात रखने के और भी तरीके अपनाये जाने चाहिए, भारत जैसे आस्थाओं के देश में किसी भी धर्म को लेकर इस तरह का मजाक बर्दाश्त ही नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यहां राम, शिव और दुर्गा को मानने वाले भी हैं तो अल्लाह और जीजस क्राइस्ट के मानने वाली भी निवास करते हैं। यहां बौद्ध भी हैं तो पारसी भी। ऐसे देश में उनकी आस्थाओं पर चोट पहुंचाकर हम अपने देश की जड़ों को कमजोर करने का ही प्रयास कर रहे हैं। इस तरह के तथाकथित सृजन से करोड़ों भारतीयों की भावनाएं आहत होती हैं और फिर इसमें जब नेताओं की घुसपैठ हो जाती है तो ज्यादा नुकसान होता है। यह नुकसान केवल उस धर्म को नहीं होता, जिस पर टिप्पणी की गई होती है, यह सभी धर्म को होता है, क्योंकि विवाद में दो पक्ष आमने-सामने होते हैं और उनके दिलों की दूरियां ही बढ़ती हैं जो देश के लिए ठीक नहीं हो सकतीं।

एक वक्त था, जब विवादास्पद फिल्म को सिनेमाघर के पर्दे पर आने में वक्त लगता था और विरोध भी इतना व्यापक नहीं होता था, जितना अब सोशल मीडिया के इस दौर में होता था। आज किसी भी विवाद को व्यापक बनते देर नहीं लगती। इन हालातों में, यह व्यवस्था के साथ ही कला और संस्कृति से जुड़े लोगों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होता है। कलाकारों को अपनी कला के माध्यम से समाज के सामने कोई बात रखने और कुरीतियों को पेश करने का पूरा हक होना चाहिए, लेकिन इसमें धर्म जैसे विषय पर अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है। आपकी रचना ऐसी होनी चाहिए जो समाज को कुछ देकर जाए, यानी शिक्षा, ज्ञान, सोच और बदलाव। न कि उसकी आड़ में शरारती तत्व हमारे सामाजिक ताने-बाने की जड़ें हिलाकर उसे इसे कमजोर करने का मौका बनायें।
जब भी किसी फिल्म, धारावाहिक, नाटक आदि में इस तरह के प्रयोग किये जाते हैं, उससे भले ही उस सृजन से जुड़े लोगों की जेब भर जाएं और उनको अच्छा खासा फायदा हो, लेकिन अंतत: नुकसान इनसानियत, समाज और देश का ही होता है। एक देश, एक भूखंड का टुकड़ा नहीं होता, इससे यहां रहने वालों की हर तरह की आस्थाएं जुड़ी होती हैं, जिन पर चोट पहुंचाने से देश का ही नुकसान होता है। जरा से फायदे के लिए इस तरह की चिंगारी भड़काने की क्या जरूरत है? यदि तांडव के कुछ दृश्य आपत्तिजनक हैं तो उनको हटाकर और बहुत जरूरी हो तो उसी कटाक्ष को कोई अन्य तरीके से फिल्माकर पुन: पेश करना चाहिए। इससे आस्था पर चोट भी नहीं होगी और सृजनकार की अपनी बात भी समाज और देश के समक्ष आ सकेगी। सरकारों को और सेंसर बोर्ड को भी ऐसे मामले सामने आने से पूर्व पहले चरण में ही इसका निबटारा कर देना चाहिए, इतनी समझदारी रखना होगा तभी हम अपने देश की अनेकता में एकता के मूल मंत्र को कायम रख पाएंगे।

1 thought on “Editorial : तरीके और भी हैं, व्यवस्था पर चोट के, जड़ों में मठा न डालें”

  1. बहुत सुंदर संपादकीय। सच तो यह है कि किसी भी धर्म का मज़ाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए। बिल्कुल उचित कहा कि व्यवस्था विरोध के तरीके बहुत हैं। मैं यहां यह कहना चाहता हूं कि व्यवस्था विरोध सोच समझ कर व्यवस्था को समझ कर ही किया जाना चाहिए। केवल शौक या विरोध के लिए नहीं। अच्छा तो यह है कि विषय विशेषज्ञ ही तर्कसंगत विरोध करें, हर कोई नहीं।

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