-पंकज पटेरिया
काली चिडिय़ा अब नहीं आती। यह पढ़कर आप अनायास हैरानी में पड़ जायेंगे और कौन, कहां, कैस, जैसे प्रश्न पखेरू आपके मन के आकाश में मंडराने लगेंगे। दरअसल यह एक अलौकिक सत्य घटना है, जो परमसत्ता के अद्भत के कार्यकलापों के दर्शन कराती है। बल्कि आज के विज्ञान युग में अचरज से भर देती है। चलिये जानें उस काली चिडिय़ा की सच्ची कहानी।
पुण्य सलिला नर्मदा जी की गोद में बसे होशंगाबाद के प्रवेश द्वार सतरस्ते पहुंचते ही बाएं हाथ की बीटीआई सड़क पकड़कर चल दें। जैसे ही तीसरा मोड़ आता वहीं ठहर जायें। यहीं हरेभरे पेड़ों से घिरा सुरम्य वातावरण में स्थित है संत शिरोमणि श्री धूनीवाले दादा जी का आश्रम। इसे दादा कुटी भी कहते हैं। लेकिन दादा जी आश्रम के इस परिसर का कालजयी नाम गटरु बाबू का बगीचा है। इसी से जुड़ी हुई है, मोहक काली चिडिय़ा की अद्भुत कहानी। गटरु बाबू यानी शहर जानेमाने रॉयल पर्सन रॉय बहादुर बैरिस्टर पंडित जगन्नाथ प्रसाद मिश्र के वशंज वैसे ही प्रतिष्ठित। लेकिन जैसे उदारमना, विनम्र, धर्मपरायण, पंडित कुंज बिहारीलाल मिश्र थे उन्हें आदरभाव से लोग गटरु बाबू जी कहते थे। उसी दौर में सुप्रसिद्ध संत दादा जी का अपने भक्तों की जमात के साथ एक न्यायालीन मामले में होशंगाबाद शुभ आगमन हुआ था। दादा जी महाराज को लंबे समय यहां रुकना था। भक्तगण उपयुक्त स्थान खोज रहे थे। दादा जी ने यहीं भक्तों से नर्मदा की तरफ इशारा कर कह दिया अरे बा करेगी। तभी देवप्रेरणा से बाबू जी दादाजी के चरणों में पहुँचे और प्राथना की कि आप कृपापूर्वक हमारे घर चलिये और हमें कृतार्थ कीजिये। त्रिकालदर्शी दादा जी को पता ही था। लिहाजा जमात के दादाजी धूनीवाले बाबू जी के बगीचे परिसर आ गये। यहीं दादाजी ने अरणि मंथन से अग्नि प्रज्वलित कर अखंड धुनी स्थापित की, गादी बनी। दादाजी सरकार यहां हां करीब तीन वर्ष रहे। उनकी अद्भुत कृपा से अनेक लोगों के दुर्दिन खत्म हुए। बिगड़े काम बने और सूनी गोद भरी। दादा जी की लीलाओं की ख्याति दूर-दूर तक थी। सदा यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता था। इन लीलाओं की चर्चा फिर कभी। अखंड धूनी, ढोल-मंजीरे, मृदंग की मधुर स्वर लहरियों के बीच यह स्थान सिद्ध पीठ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। दादाजी की समाधि के बरसों बाद भी नेता, अधिकारी, गरीब, अमीर समानभाव से दादा जी कृपा पाने दौड़े चले आते।
काली चिडिय़ा की कहानी
दरअसल गटरु बाबू प्राय: रोज सुबह दालान में बैठते और दादा जी का प्रसिद्ध भजन गाते थे। बाबू जी जैसे ही पहली पंक्ति बोलते रक्षा करो हमारी तुरन्त जाने कहां से उड़कर आकर अनार के पेड़, कभी हारसिंगार के पेड़ पर बैठी नन्हीं प्यारी मोहक चिडिय़ा दूसरी लाइन मीठे स्वर में दोहराती। दादा जी धुनी वाले का यह सिलसिला सालों साल से चल रहा था। शुरू में घर-परिवार अचरज होता था लेकिन दादाजी की कृपा मानकर संतोष कर लिया। बाबू जी के बड़े बेटे सेवानिवृत बैंक अधिकारी, साहित्यकार टीपी मिश्र जी मेरे बहनोई हैं। इसलिए बाबू जी की चिडिय़ा की सुरीली गफ़्तगुं का मैं भी साक्षी रहा हूँ। मेरी प्यारी बहन स्व. अरुणा मिश्र ने कई बार मुझे ले जाकर यह मधुर भजनवार्ता सुनवाई। मैं दैनिक भास्कर का संवाददाता था। अन्य पत्रिकाओं में भी लिखता रहता था और ऐसे प्रसंग में खो जाता रहता था। कुछ साल बाद बाबू जी का दुखद निधन 21 मई 1971 में हो गया। घोर आश्चर्य की बात यह हुई की वह चिडिय़ा कभी लौट कर नहीं आयी और न दिखी। कुछ समय बाद दीदी भी भगवान के घर चली गई। दिव्य दादाजीधाम में वैसी पावनता और अलौकिकता व्याप्त है। माथा टेकने बहनोई साहब और सभी से मिलने अकसर हम जाते रहते हैं। परिसर में दाखिल होते ही रक्षा करो दादा जी की मीठी पंक्ति सहज याद आ जाती और आंखे भीग जाती। कलकल नर्मदा बहने लगती दादा जी दरबार में माथा टेक धुनी से विभूति लगाकर सुबक कर रह जाते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कवि के साथ ही शब्दध्वज होशंगाबाद के सम्पादक हैं।
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पंकज जी आपका लिखा काली चिडिया पढा बढिया लिखा पढने के साथ होशंगाबाद इटारसी याद आ गये आपसे बात भी हो गई
पंकज जी आज आपका लिखा काली चिडिय़ा पढा बहुत अचछा लगा आपसे बात भी हो गई इटारसी होशंगाबाद की यादें भी ताजा हो गई