विनोद कुशवाहा
15 अगस्त आते ही याद आ जाता है बचपन भी । कितना मासूम , कितना प्यारा। आंखें नम हो जाती हैं।
14 अगस्त यानि एक दिन पहले ही हमारी ड्रेस तैयार हो जाती थी। मतलब। धुल भी जाती थी और प्रेस भी हो जाती थी। ड्रेस कहा तो खाकी हाफ पेंट – हाफ स्लिप की सफेद शर्ट। … और हां साथ ही गांधी टोपी भी। जो उन दिनों 15 अगस्त को ही नहीं अन्य दिनों में भी नियमित रुप से पहनना पड़ता था । पांचवीं के विदाई समारोह की फोटो में भी हम सब टोपी लगाए ही बैठे हैं । खैर।
शाम को शासकीय भवनों पर होने वाली रंग – बिरंगी रोशनी देखने निकल पड़ते थे पर जल्दी घर लौटते। जल्दी सो भी जाते। सुबह तड़के उठते और ठीक सात बजे आर्यनगर प्राथमिक शाला पहुंच जाते । ऐसा लगता जैसे कोई त्यौहार मनाने पहुंचे हों क्योंकि बस्ते का बोझ नहीं होता। न पढ़ने का टेंशन , न मार का डर।
स्कूल में पहले से ही मौजूद मिलते बड़े गुरुजी बाबूलाल जी शर्मा, पटेल मास्साब, वर्मा गुरुजी और श्रोती जी। श्रोती जी को देखते ही हम कान सहलाने लगते थे क्योंकि बड़ी जोर से कान उमेठते थे यार। अफसोस कि कान उमेठने, पीठ पर धप्प मारने और घुटने टेक करने वाली ये पीढ़ी अब दिवंगत हो गई।
ठीक 7 बजे घन्टी बजती। हम सब कक्षावार लाइन लगा कर सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाते। श्रोती गुरुजी बहुत बारीकी से देखते कि कौन उपस्थित है, कौन नहीं। जाहिर है कि अनुपस्थित लड़कों की अगले दिन कुटाई होना तय रहती।
मुख्यअतिथि होते हमारे क्षेत्रीय पार्षद पं द्वारका प्रसाद भारद्वाज जो आते ही से झंडा वंदन करते और शुरू हो जाता हमारा राष्ट्रगान । राष्ट्रगान गाने वाले तीन विद्यार्थियों में मुझे तो रहना ही पड़ता था। तभी से राष्ट्रगान रग-रग में रच-बस गया है।
प्रसन्नता का विषय ये है कि भारद्वाज जी आज भी उतने ही चुस्त दुरुस्त हैं जितने साठ के दशक में थे। ताज्जुब होता है कि इस उम्र में भी वे गुरुद्वारे के सामने स्थित ” भारद्वाज जनरल स्टोर ” उतनी ही कुशलता से सम्हाल रहे हैं। जबकि उनके बड़े बेटे डॉ ओमप्रकाश भारद्वाज चिकित्सा जगत में जाना पहचाना नाम है और वे माखननगर के ग्रामीण क्षेत्र में अपनी सेवायें दे रहे हैं। भारद्वाज जी के छोटे पुत्र श्रीप्रकाश भारद्वाज इंजीनियर हैं। पं द्वारकाप्रसाद जी भारद्वाज की एक सुपुत्री भी हैं। पुष्पा दीदी। उनका विवाह दिल्ली में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय अमेरिका में भी बिताया है। पुष्पा तिवारी सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। समय – समय पर उनको अनेकों सम्मान भी प्राप्त हुए हैं ।
राष्ट्रगान के बाद हम बच्चों में से ही कुछ बच्चे लिखा हुआ भाषण पढ़ते। गीत गाते। उन बच्चों में मैं भी रहता। तब हमको रंग – बिरंगी चाक पुरस्कार में मिलती थी। या फिर पेन्सिल।
इस बीच स्कूल इंस्पेक्टर दीवान जी भी आ जाते। उनके सम्मान में बड़े गुरुजी सहित हम सब खड़े हो जाते। वे बैठने का इशारा करते। हम सब चुपचाप टाट पट्टी पर धम्म से बैठ जाते।
फिर शुरू होता सबके भाषणों का सिलसिला पर हमारी नजर तो लड्डुओं पर रहती। लड्डुओं की व्यवस्था कभी नगरपालिका की तरफ से रहती तो कभी बड़े गुरुजी यहां – वहां से जैसे – तैसे व्यवस्था करवाते। जब कहीं से कोई जुगाड़ नहीं होता तो हमारे पार्षद पं द्वारकाप्रसाद भारद्वाज व्यवस्था करा देते कुल मिलाकर हम स्कूल से कभी खाली हाथ नहीं लौटते थे।
कभी – कभी हम बच्चों को सामूहिक रूप से ‘ शहीद ‘ जैसी देश भक्ति की फिल्में भी देखने को मिल जाती थीं।
बाकी दिन हमारा खेलकूद में निकल जाता। यही हमारी आजादी थी । यही थे हमारे लिए आजादी के मायने।
विनोद कुशवाहा (Vinod Kushwah)