बहुरंग : बौने होते संपादकीय, गायब होता पत्र-लेखन

Post by: Manju Thakur

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– विनोद कुशवाहा
एक समय था जब अखबार में सबसे पहले संपादकीय वाला पृष्ठ खोला जाता था क्योंकि संपादकीय समसामयिक विषयों पर केन्द्रित होते थे बल्कि यूं कहा जाए कि कुछ अखबार तो सम्पादकीय के कारण ही खरीदे जाते थे । जैसे नव भारत, नई दुनिया, देशबंधु, दैनिक भास्कर, जनसत्ता आदि। मायाराम सुरजन, रामगोपाल माहेश्वरी, मदनमोहन जोशी, प्रभाष जोशी का समय अखबारों का स्वर्ण युग था। उनको पढ़ने के लिए पाठक बेचैन रहते थे। बाद में फिर त्वरित टिप्पणियों का समय आया। सामयिक विषयों पर श्रवण गर्ग, ध्यानसिंह तोमर, महेश श्रीवास्तव की टिप्पणियां अखबारों के शिखर पर मौजूद रहा करती थीं। अखबारों के मुख पृष्ठ की शोभा इन त्वरित टिप्पणियों की चमक भी धीरे – धीरे कम होती चली गई। फीकी पढ़ने लगी। न वो पुराने लोग रहे न वैसे संपादकीय रहे। यूं कहिये कि सम्पादकीय या तो गायब ही हो गए या उनका कद छोटा हो गया। संपादक भी नाम के ही रह गए हैं। न वे सम्पादकीय लिख पा रहे हैं और न ही त्वरित टिप्पणियां।
उस दौर में संपादकीय पृष्ठ पर ही पाठकों के पत्रों को बहुत सम्मान के साथ प्रकाशित किया जाता था। सर्वश्रेष्ठ – पत्र को समाचार – पत्र न केवल पुरस्कृत करते थे अपितु नई दुनिया जैसे अखबार तो पत्र – लेखकों को पारिश्रमिक भी दिया करते थे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि पत्रों के साथ संपादक कोई छेड़छाड़ नहीं करते थे क्योंकि पत्र – लेखक द्वारा लिखे गए पत्र के लिये पत्र – लेखक स्वयं जिम्मेदार होते थे। ऐसे में पत्रों को लेकर संपादकों की सहमति / असहमति का कोई अर्थ नहीं रह जाता था। संपादक भी पहले ही पत्र – लेखकों के लिए निर्धारित स्तम्भ में सबसे ऊपर ये लिखकर मुक्त हो जाते थे कि – ‘ संपादक की सहमति अनिवार्य नहीं ‘। उस समय लगभग आधा पेज संपादक के नाम पत्रों से भरा होता था। प्रकाशित पत्रों पर प्रशासन भी प्राथमिकता के आधार पर कार्यवाही करता था। इतना ही नहीं की गई कार्यवाही से पत्र – लेखकों को अवगत भी कराया जाता था। हमारे शहर इटारसी में जो पत्र – लेखक नियमित रूप से पत्र – लेखन करते थे वे अपनी योग्यता के कारण आज या तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े हुए हैं या फिर प्रिंट मीडिया में अपना अलग स्थान रखते हैं। जहां एक ओर पुनीत पाठक , गिरीश पटेल , इन्द्रपाल सिंह आदि पत्र – लेखकों ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़कर इटारसी का गौरव बढ़ाया है वहीं दूसरी ओर रोहित नागे , नरेश भगोरिया , राहुल शरण आदि पत्रकारों ने प्रिंट मीडिया में रहते हुए भी नए आयाम स्थापित किये हैं।

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इटारसी अंचल में पत्र – लेखन विधा को बढ़ावा देने के लिये मप्र जन चेतना लेखक संघ , युवा पत्र – लेखक मंच जैसी संस्थायें मौजूद हैं जो निरन्तर इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। म प्र जन चेतना लेखक संघ का गठन ” समाचार – पत्रों में पत्र – लेखन ” को बढ़ावा देने के लिए प्रांतीय स्तर पर मेरे द्वारा किया गया था। ‘ जन चेतना लेखक संघ ‘ प्रतिवर्ष ” सर्वश्रेष्ठ पत्र – लेखन ” के लिए पुरस्कार भी देता आया है। ‘ युवा पत्र – लेखक मंच ‘ ने ” पत्र – लेखन प्रतियोगिता ” आयोजित करने के साथ – साथ पर्यावरण के क्षेत्र में भी जागरूकता लाने के निरन्तर प्रयास किए हैं। वर्तमान में ‘ पत्र – लेखक मंच ‘ के अध्यक्ष राजेश दुबे हैं। शहर में उपरोक्त संस्थाओं द्वारा संयुक्त रूप से ” पत्र – लेखन कार्यशाला ” भी आयोजित की गई है।

… लेकिन इस जद्दोजहद का कोई अर्थ नहीं क्योंकि साप्ताहिक ‘ नगर कथा ‘ को छोड़कर किसी भी समाचार-पत्र में “पत्र – लेखन” को अब कोई स्थान नहीं दिया जाता। ‘ नगरकथा ‘ में तो पूरा एक पृष्ठ पत्र – लेखकों के लिये निर्धारित रहता है। अफसोस कि पत्र – लेखकों की रुचि भी पत्र – लेखन की अपेक्षा कविताओं में ज्यादा रहती है।
दोनों ओर से अंततः नुकसान पाठकों का ही हो रहा है क्योंकि न तो उन्हें पढ़ने को पत्र ही मिल रहे हैं और न ही उनको संपादकीय पढ़ने को मिल पाते हैं। ये स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। सोचनीय भी। इस विषय पर संपादकों को चिंतन करना चाहिए। साथ ही पत्र – लेखकों के लिये भी यह विचारणीय प्रश्न है।

vinod kushwah
लेखक मूलतः कहानीकार है परन्तु विभिन्न विधाओं में भी दखल है।
Contact : 96445 43026

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