– बाबूलाल दाहिया (पद्मश्री) :
यदि विकसित मनुष्य की उत्पत्ति एक करोड़ वर्ष मानी जाये तो वह 99 लाख 90 हजार वर्ष वह बिना खेती के ही रहा। जंगल में इस बड़े-बड़े दंत, नख और सींग विहीन दो पैर वाले निरीह जन्तु ने भीमकाय हाथी व शेर, चीता, भेडिय़ा आदि हिंसक जीवों के बीच रह कर कितना संघर्षमय जीवन गुजारा होगा? जब पल-पल में उसे मृत्य के दर्शन होते रहे होंगे? यह सहज ही कल्पना की जा सकती है। परन्तु उसके पास यदि कुछ मुकाबला करने के लिए था तो अन्य जीवों से अलग दो फुर्सत के हाथ और एक अदद विलक्षण बुद्धि जिससे वह सब से मुकाबला करता रहा। उसकी अक्ल ने जोर मारा और उसने सुरक्षा के हथियार खोजे। पशुओं को पालतू बनाया, अनाज चिन्हित किये और खेती की तकनीक खोज उन्हें उगाने लगा।
यह सब क्रमिक विकास में होता रहा किन्तु प्रकृति के संतुलन में तब कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा। लेकिन पिछले 50 साठ साल में इधर कब, क्या हो गया कि हमारा प्रकृति से नाता ही टूट गया और हम समझ ही न पाए? आज समझ में तो तब आ रहा है जब बहुत देर हो चुकी है। क्योंकि आज इस दैत्य बने मनुष्य की करतूत देख नदी, नाले, जंगल, पहाड़, पानी हवा, सब सहमे, घबराये से उसकी ओर इशारा करने लगे कि ‘हमारे बीच लाखों वर्षों से साथ-साथ रहने वाला यह दो पैर का जन्तु अब क्या-क्या गुल खिलाने वाला है?’
हमारे पूर्वजों की सदियों के आजमाए अनाज, सब्जियां थीं वे सब धीर-धीरे खत्म हो गए। उनके स्थान पर ऐसे चमत्कारी बीज आ गए हैं जो 5-6 सौ फीट तक का पानी सुड़क रहे हैं। पर यह तथाकथित खेती सचमुच लाभकारी है, या सब कुछ बर्बाद करने वाली, सिर्फ प्रचार तन्त्र का अंग है? यह समझ से परे है। क्योंकि जितनी आत्महत्याएं हो रही हैं वे सभी आधुनिक खेती अपनाने वाले कृषक ही कर रहे हैं। इधर बड़े-बड़े कांक्रीट के भवन, धुआं उगलती चिमनियां, जंगलों को उत्तरोत्तर पीछे धकेल रही है। अनेक जीव जन्तु विलुप्तता के गहरे गर्त में समाते प्रकृति का संतुलन बिगाड़ रहे हैं। समझ में ही नहीं आ रहा कि यह यहां क्यों इतनी मात्रा में खड़े किये जा रहे हैं? और हमें क्यों प्रकृति से दूर धकेला जा रहा है। एवं इनकी यह करतूत हमें कहां ले जाने वाली है?
प्रकृति के कायनात में हजारों ग्रह हैं। अब तक की खोज में हमारी धरती ही एक ऐसा ग्रह है जहां जीवन है। पर बहुत हो चुका। अब हमें सोचना चाहिए कि हम अपनी धरती को इसी तरह जीव जंतुओं से परिपूर्ण बनाये रखना चाहते हैं या उसे भी अन्य ग्रहों की तरह जीव रहित कर डालना चाहते हैं?
बाबूलाल दाहिया (पद्मश्री)