लॉक डाउन : मध्यमवर्गीय पारिवार का द्वन्द और समाधान

Post by: Manju Thakur

बहुरंग में सतीश “सब्र’ की कहानी
हौंसला शहर में संघर्ष नामक कर्मठ, चिंतनशील मध्यमवर्गीय युवा है। उसकी पत्नी इक्षा पढ़ी लिखी विशुद्ध गृहिणी। संयम और जीवन अपने नाम की गंभीरता लिए चंचल लेकिन समझदार बच्चे। एक छत के नीचे पूरे संसार सा परिवार, हंसता खेलता और अपने अपने कामों में व्यस्त। जैसे कल की ही बात है। सब अच्छा चल रहा था। अचानक एक अदृश्य तूफान कोरोना ने सब बदल दिया। लाकडाउन के पहले कुछ दिन प्रसन्नता के बीते। जीवन और संयम के सो जाने के बाद घर लौटने वाला और उनके स्कूल जाने के बाद उठ पाने वाला संघर्ष परिवार के साथ समय बिताकर संतुष्ट हो रहा था। वरना भाग दौड़ में कहां वक़्त मिलता था। बीतता समय, खाली होती जा रही गुल्लक और घटती जा रही इक्षा के चातुर्य की आर्थिक बचत अब विपत्ति आने का संकेत करने लगी है।
संघर्ष अपनी चिंता छिपाकर बस मुस्कुराता दिन काट रहा है। उस सुबह के इंतजार में जब वह भोर होते ही कर्मठ चिड़े की तरह घोंसले से हौंसला लेकर उड़े और अपनी उड़ान की प्रतीक्षा कर रहे संयम और जीवन के लिए दाने बटोर लाए।
युवा संघर्ष चिंता में डूबा, रात्रि कर्तव्य संलग्न अपने कर्म में निमग्न सन्नाटे के साथ लक्ष्य की ओर अग्रसर। संघर्ष के मन में अनेक प्रश्न। सोचता है वर्तमान की कोख में रोपित हो रहे सम – विषम बीज हम जैसे मध्यमवर्गियों के जीवन में बदलाव के साथ विकराल समस्याओं के दानव की तरह तो नहीं आएंगे।
भविष्य से डरकर वह अपने चिंतन की दुनिया में ही दबे पांव भूतकाल में पहुंच जाता है।
चौक जाता है जब याद करता है कि आजादी के पहले भी नौकरशाही का प्रभुत्व था। नौकरशाहों ने देश की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आस्थाओं पर प्रहार कर अपना वर्चस्व स्थापित किया। आजादी मिली तो तात्कालिक विद्वानों ने लोकशाही को उपयुक्त समझा। पर लोकशाही चली नहीं। सत्ता के लोभियों की प्रबल महत्वाकांक्षा के कारण समाज का अधिकांश वर्ग शिक्षा से अछूता केवल साक्षर होता गया। दूरदर्शी विचारधाराओं ने बागी बनकर परिवर्तन लाने के प्रयास जरूर किये लेकिन स्थापित विचारधाराओं के कारण अल्प समय ही प्रभावी विरोध के तले दम तोड़ बैंठी ।
सत्तामद ने कूटनीति से भावनाओं, परिस्थितियों अंधविश्वास, जातिगत भेद के दोहरे मापदंड का संकर उत्पन्न किया। जो यदा -कदा तबाही के नए रूप लिए अट्टहास करता सामने आ खड़ा होता है। जैसे कोरोना…
चिड़िया दबी आवाज में चहकने लगी हैं। कूलर की हवा से अब बिजली का बिल बढ़ने का डर है। गर्मी में रात कब बीती पता नहीं। शायद इसी तपन ने नन्हें संयम की नींद खोल दी। पुत्र संयम के रोने की आवाज से संघर्ष फिर वर्तमान में आ खड़ा हुआ। संयम को अपनी बाँहों के तकिये पर सुलाने के सफल प्रयास के बीच संघर्ष अपने अन्तःकरण में द्वन्द्व करते प्रश्न खुद से पूछता है…क्या धर्म की आड़ में आस्था भ्रमित होती रहेंगी? लोकशाही में शिक्षा का मापदंड कब आएगा? कब तक शिक्षा पूंजीपतियों की द्वारपाल बनी रहेगी? क्या मुझ जैसे युवा संघर्ष नेकी का रास्ता भटककर आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, अमानवीयता के कर्मकाण्ड करते किसी और दुनिया में खो जाएंगे।
हावी होती नकारात्मकता को मुंह पर ढकी चादर सा हटाकर संघर्ष अपनी सकारात्मता की ऊर्जा समेटकर मन को जागृत करता है। उलझने की जगह खुद को सुलझाता है, मिले वक्त का सदुपयोग करने के संकल्प के साथ। कहता है आईना सबसे अच्छा माध्यम है स्व के अवलोकन का। संघर्ष की जिजीविषा ही उसे सम्मानित और प्रतिष्ठित बनाती है। संघर्ष ही समझता है दोषारोपण मन को तसल्ली देने के सिवाय कुछ भी नहीं। बिखरी आत्मशक्ति को समेटकर अपनी प्रतिभानुसार परिवार संजोना और स्वयं में परिवर्तन ही उचित है। भूत, भविष्य, वर्तमान के ये तमाम विषय तब तक बने रहेंगे जब तक हम और तुम चलायमान हैं। संघर्ष कर्मयोद्वा है और सकारात्मता मार्गदर्शक गुरु।
सूर्य अंधकार पी रहा है। अब तो दरवाजे की संधि से धूप अंदर आने का प्रयास कर रही है। पत्नी इक्षा जाग चुकी है। नए दिन की कर्त्तव्य वेदी में कर्म की आहुतियाँ देने।
जागे हुए संघर्ष को उठाती इच्छा बोली – आज यदि सब्जी वाला निकले तो ध्यान से ले लेना। जीवन-संयम के बिस्कुट भी लेते आना। लाकडाउन पता नही कब तक चलेगा। अब तो किचिन के डब्बे भी किलकारियां मारने लगे हैं। साडियों में ऐसे ही बुरे वख्त में तुम्हारा साथ देने छुपाकर रखे पैसे भी अब खत्म होते जा रहे हैं। इक्षा का गला रुंध गया है। कहती है क्यों जी, आपका और मेरा पढ़ा लिखा स्वाभिमानी होना किस काम का। जो न राशन की लाइन में लगने देता है, न किसी से कुछ माँगने देता। संघर्ष उठो मकान का किराया, दूधवाला, बिजली बिल, मोबाईल, टीवी रीचार्ज, गैस टंकी इन सबका महिना भी तो पूरा होने को है। जैसे-जैसे दिन बढते जा रहे संघर्ष के सुबह के संस्करण मे पत्नी इक्षा की रुंधी आवाज के साथ नित्य नए अध्याय जुड़ते जा रहे…
इच्छा खीजकर संघर्ष से पूछती… एक बात समझ नहीं आती। क्या सरकार हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों की गणना नहीं कराती। क्या सरकार की हमारे प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं? हम तो बिल भी समय पर चुकाते हैं और टैक्स भी देते हैं। न सस्ता राशन ही मिलता है न किसी योजना या वजीफे के लाभ।
संघर्ष अपनी गोद में संयम को समेटकर जवाब देता है। सरकार को सब मालूम है। शायह हम ही आत्मसम्मान में उलझ गए हैं। सरकार हमें आत्मनिर्भर समझती है। बस इक्षा यही बिडम्बना है।
इच्छा फिर गृहिणी सी संघर्ष को सहारा देती और कहती- जीवन- संयम के पापा कोई बात नहीं। समय बदल रहा है। हमें भी बदलना चाहिए। सीमित संसाधनों में सुखी जीवन यापन करने की सीख दे रहा है आपका यह कोरोना और इसका लॉक डाउन। इच्छा की बात सुन संघर्ष मुस्कुराया। आकाश की ओर देखकर कहता है वाह रे भगवान बने समय। तूने तो मन के द्वन्द को समाधान बनाकर समरसता, सुगमता के दीप एक साथ प्रज्जवलित कर दिए।
सीमित संसाधनों में सुख और शांति की तलाश ही शायद परिवर्तन का पहला नियम होगा।

Dr. Satish
डॉ. सतीश सब्र पेशे से होम्योपैथिक चिकित्सक हैं। लेखन में इनकी विशेष रुचि है। नरसिंहपुर निवासी सतीश समाज सेवा और व्यावसायिक गतिविधियों के साथ त्वरित घटनाओं पर आलेख, कविता और कहानियों के माध्यम से जन जागृति लाने का प्रयास करते हैं।

Contact : 8889921806

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