रावण की अस्थियों से बनता टेसू, लड़कियां घुमाती हैं गड़वा

Post by: Poonam Soni

इटारसी। नवरात्र (Navratra) के पहले दिन से मां की भक्ति और फिर आशीर्वाद का सिलसिला 9 दिन चलता है। लेकिन, आगे पांच दिन और होते हैं जब रावण (Ravan) का आशीष पाने के लिए बच्चे उसकी अस्थियों को गली-गली घुमाकर दान-दक्षिणा मांगते और दान देने वालों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। इस दौरान ये कई प्रकार के टेसू (Tesu) और गड़वा (Gadwa) से संबंधित गीतों की पंक्तियां भी गाते थे। इसमें ‘मेरा टेसू यहीं अड़ा, खाने को मांगता दही बड़ाÓ जैसे गीत खूब लोकप्रिय होते थे।
यह परंपरा होशंगाबाद जिले के अनेक हिस्सों में वर्षों पूर्व निभाई जाती थी और कुछ जगह आज भी निभाई जा रही है। टेसू का अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग रंग-रूप होता है। पहले रावण का पुतला बांस की पतली लकडिय़ों से बनाया जाता था। जब रावण के पुतले का दहन होता था, बच्चे इनमें से जलने से बची लकडिय़ों का उठाकर लाते थे और उनको बीस से आपस में त्रिकोण आकार में बांधकर बीच में एक दीया लगाते थे। तीन लकडिय़ों में एक पर रावण की खोपड़ी बनाकर लगायी जाती थी, दूसरे में तलवार और एक में पंजा लगाया जाता था।
बच्चे इस टेसू को लेकर घर-घर जाकर दान मांगते थे। जो लोग दक्षिणा देते थे, उनको शुभाशीष मिलता था। यह सिलसिला शरद पूर्णिमा तक चलता था। इसी तरह से लड़कियां एक मटकी में चारों तरफ बहुत सारे छेद करके अंदर दीये जलाकर रखती और उसे गड़वा कहते थे। इसे भी घर-घर ले जाया जाता था और दान-दक्षिणा मांगी जाती थी। शरद पूर्णिमा के दिन इनका विसर्जन किया जाता था। कुछ जगहों पर गड़वा को किसी चौराहे पर फैंककर फोडा जाता था और मान्यता थी कि इसे पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए अन्यथा अपशगुन होता है।
शरद पूर्णिमा (Sharad Purnima) के दिन पांच दिन के मिले दान से खाना, पकवान आदि बनाये जाते थे और इसका प्रसाद बांटा जाता था। टेसू और गड़वा समिति के सदस्य भी आपस में इसी भोजन प्रसादी को ग्रहण करते थे। यह लोक परंपरा का उत्साह अब कहीं दिखाई नहीं देता है। आज की पीढ़ी मोबाइल, टीवी के निकट जाकर इन परंपराओं से दूर होती चली जा रही है।

बृज में भी निभाते थे यह परंपरा
बृज में भी टेसू और सांझी (यहां गड़वा को सांझी कहते थे) को घर लाकर उनका विवाह कराने की बच्चों में होड़ रहती थी। बच्चे हाथों में टेसू लेकर घर-घर जाकर टेसू के प्रचलित गीत गाते थे। इसके बाद हर घर उन्हें अनाज या धन देकर विदा करता था। उसे बच्चे टेसू और सांझी के विवाह में लगाते थे। आखिरी में पूर्णिमा के दिन धूमधाम से उनका विसर्जन किया जाता था। धीरे-धीरे बृज की ये अनोखी परंपरा भी गुम हो गई। अब कुछ ही जगहों पर ये प्रथा जिंदा है। शारदीय नवरात्र में बच्चे ‘मेरा टेसू झंई अड़ा, खाने को मांगे दही बड़ाÓ ये गीत गाते हैं। लड़के टेसू लेकर घर-घर घूमते हैं। टेसू के गीत गाकर पैसे भी मांगते हैं। पूर्णिमा के दिन टेसू तथा सांझी का विवाह रचाया जाता है। सांझी और टेसू का खेल ज्यादातर उत्तर भारत में लोकप्रिय हैं। इसे बच्चे ही नहीं, बल्कि युवा भी खेलते हैं। सांझी बनाते समय लड़कियां जो गीत गाती हैं, वो वहीं की भाषा में होते हैं। आमतौर पर टेसू का स्टैंड बांस का बनाया जाता है। इसमें मिट्टी की तीन पुतलियां फिट कर दी जाती हैं, जो क्रमश: टेसू राजा, दासी और चौकीदार की होती हैं या टेसू राजा और दो दासियां होती हैं। बीच में मोमबत्ती या दिया रखने की जगह बनाई जाती है।

Leave a Comment

error: Content is protected !!