आज आंवला नवमी (Amla Navmi) है। हमारे समाज के बीच बहुत सारी परंपराएं हैं। पहले इन सारी परंपराओ के पीछे कुछ न कुछ वैज्ञानिक कारण ही रहे होंगे।
किन्तु बाद में वैज्ञानिक कारण तो पीछे छूट गए और परंपराए आगे हो गईं। ऐसी बहुत सारी परंपराओं को मैं ज्यादा महत्व नहीं देता। परंतु कुछ ऐसी परंपराए भी है जिनमें पर्यावरणीय जैव विविधता का संरक्षण है। वह निश्चय ही समाज के लिए उपयोगी है। उदाहरण के लिए गौंड समुदाय द्वारा नया अनाज खाने के पहले सरइया धान के चावल को पकाकर भगवान बड़ा देव का भोग लगाना। आज जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के करतूतों से तमाम परंपरागत किस्म की धान समाप्त हो रही है, तो कम से कम इस परंपरा से एक धान तो सुरक्षित है?
कहते है उड़ीसा में भगवान जगन्नाथ (Lord Jagannath) को प्रतिदिन एक नई धान के चावल का अटका चढ़ता है और प्रसाद में बंटता भी है। तो इस परंपरा से कम से कम 365 धान तो संरक्षित होगी? हमारे रसोई घर के द्वार में एक आंवला का पेड़ है। आंवला के औषधीय गुण के कारण उसे अमृता भी कहा गया है। आज जब सुबह मैं मंजन करने के लिए आंगन में आया तो देखा कि मेरी पौत्र वधू मोनिका नहाकर चौक आदि पूर दीप जला उस आंवले की पूजा कर रही थी। क्योंकि उसके मायके में आज आंवले की पूजा और एक दिन उसके पेड़ के नीचे बैठकर सपरिवार खाने की परंपरा है।
किन्तु यहां तो हमारा परिवार बारहों माह आंवला के नीचे बैठकर ही भोजन करता है। अस्तु उसे किसी अन्य आंवला के पेड़ को खोजने की जरूरत नहीं पड़ी। परन्तु यह परंपरा कैसे बनी होगी? निश्चय ही आंवले की उपयोगिता को देखते हुए उसके संरक्षण के लिए ही बनाया होगा कि इतना उपयोगी यह फल संरक्षित रहे? पर वैज्ञानिक कारण तो पीछे रह गया और परंपरा भर को लोग अपनाते रहे। इसी तरह पर्यावरण एवं जैव विविधता संरक्षण में दो परंपराएं और महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है।
1– दशहरा तक कैथ फल न खाना ?
2–अक्षय तृतीया तक अचार, चिरोंजी को न खाना?
इसके पीछे भी हमारे पूर्वजों की यही मंसा रही होगी कि यह परिपक्व होने पर ही तोड़े जायें जिससे इनका कुछ वंश परिवर्धन भी होता रहे। क्योंकि दशहरा के आसपास कैथ फल कोविट पक कर गिरने लगता है और अक्षय तृतीया के आस पास अचार पककर झडऩे लगता है।
श्री बाबूलाल दाहिया, किसान और कवि
(लेखक सतना जिले के पिथौराबाद के रहने वाले हैं और भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित हैं)