प्रसंग वश-चंद्रकांत अग्रवाल/ सच तो यह है कि आज के दौर में पाश्चात्य संस्कृति हो या भारतीय संस्कृति प्रेम की परिभाषा ही एक भ्रांति की तरह छलाबा मात्र ही हैं। प्रेम तभी सच्चा माना जाता हेै जब वह अकारण और असंबंधित होकर 24 घंटों एक समान तीव्रता से हो। पाश्चात्य संस्कृति की कोख से उपजे वेलेंटाइन डे पर प्रेम क्या होता है, क्यों होता है,कैसे होता हेै, इन सवालों के जबाव ढूंढने की कोशिश सेलीब्रेशन करने वाले प्राय: कभी नही करते। इसी कारण वेलेंटाइन डे विश्व गुरु माने जाने वाले हमारे देश में इतना अधिक विवादास्पद बन गया हेैं। देवी हेमलता शास्त्री वृंदावन ने विगत दिनों प्रेम से सराबोर भक्ति, ज्ञान व राष्ट्र भक्ति की जो पावन धारा संवाहित की , वह शहर की फिजाओं में व खासकर जिन भी सौभाग्यवान श्रोताओं ने उनको एक दिन क्या 1 घण्टे भी सुना होगा उनके दिलोदिमाग में सदा प्रवाहमान रहेगी ऐसा मानता हूं मैं। जब तक हेमलता जी इटारसी में थीं मैं चाहकर भी समयाभाव के कारण उनके प्रेम आहुति वाले ज्ञान यज्ञ पर अपने कॉलम में कुछ नहीं लिख पाया। आज रविवार को जब पूरा विश्व खासकर यूरोप , अमेरिका आदि में जब संत वेलेंटाइन जिन्होंने प्रेम का संदेश दिया था के नाम पर प्रेम दिवस मनाया जा रहा है तो मुझे सहज ही देवी हेमलता के ज्ञान सत्रों के वे लमहे याद आ गए जो मैंने सुने थे। जिनमें उन्होंने भक्ति , ज्ञान व राष्ट्र भक्ति के साथ प्रेम की वो गंगा संवाहित की जिसने न जाने कितने ह्रदयों को इस दिव्य व पावन प्रेम से सराबोर कर दिया होगा, इटारसी में व सत्संग चेनल के लाइव द्वारा विश्व भर में। हमारे देश में तो आदि काल से शाश्वत, अलौकिक, मर्यादित व समर्पण रूपी प्रेम हमारी संस्कृति, संस्कारों व जीवन दर्शन में रचा बसा है। द्वापर में मानव अवतार लिए सृष्टि रचियता श्री कृष्ण को प्रेम का देवता व माँ राधा को प्रेम की देवी माना जाता है हमारे देश में। बल्कि मुझे तो लगता है कि संत वेलेंटाइन ने भी एक सीमा तक उनका ही अनुसरण मात्र ही किया होगा।
रोम के संत वेलेंटाइन एक पादरी थे जो लगभग 269 ईस्वी में इंतेरामना आधुनिक टेरनी के बिशप बने। कहा जाता है कि ओरेलियन सम्राट के उत्पीड़न के अनुक्रम में उनकी हत्या हुई थी। क्योंकि सम्राट द्वारा युवकों को प्रेम व विवाह ही नहीं करने का कानून बना दिया था जिसे न मानकर वेलेंटाइन चुपचाप युवकों का प्रेम विवाह करा देते थे। हमारे लाखों – करोड़ों संतों ने भी त्रेता काल से आज तक यही संदेश दिया है कि प्रेम के बिना भक्ति व ज्ञान निरर्थक समान ही हैं। हमारी संस्कृति में तो आदिकाल से गृहस्थ धर्म को भी कभी भी देश भक्ति व देश प्रेम में बाधक नहीं माना गया। द्वापर काल में तो श्री कृष्ण ने देह से भी परे एक ऐसे अलौकिक प्रेम को जन्म दिया जिसकी कल्पना भी कर पाना आसान नहीं ज्ञानियों के लिए भी। श्री राधा संग उनका यह अलौकिक प्रेम इतना अनंत था कि उसमें सम्पूर्ण ब्रज ही समाहित हो गया था , जिनमें गोप गोपिकाएं तो थीं ही सम्पूर्ण प्रकृति ही समाहित हो गई थी। त्रेता के श्री राम की तरह न होकर भी उनका यह प्रेम उतना ही पावन व मर्यादित था। अतः हमें कोई विदेशी भला क्या बता सकता है कि प्रेम क्या होता है। उन्नीसवीं शताब्दी की ही बात करें तो ओशो ने भी कहा कि प्रेम आपका स्वभाव बन जाए, उठते ,बैठते ,सोते ,जागते ,अकेले में, भीड़ में, वह बरसता रहे फूल की सुगंध की तरह, दीपक की रोशनी की तरह तो आपका यह प्रेम आपको जोड़ देता हैं सभी से, सृष्टि से,अनंत से,आपके ईष्ट से। ओशो का यह दर्शन प्रेम की दिव्यता,प्रेम की ताकत और प्रेम की खूबसूरती को अभिव्यक्त करता है। कदाचित इसीलिए गुलजार एक फिल्मी गीत में कहते हैं कि हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो। प्रेम तो सुगंध जैसा होता है रंगों जैसा, रेशम जैसा, शहद जैसा, और मीठे स्वर जैसा होता हैं। इस तरह पांचों इंद्रीयों से आभास रूप में जुड़े होते हुए भी वास्तव में वह इंद्रीयों से भी परे ही होता है। ओशो कहते हैं कि यह वही पराआनंद हैं जो इंद्रियों से महसूस ही नहीं किया जा सकता। इस कड़वे सच को ही इंद्रिय सुखों के पीछे पागल युवा पीढ़ी आत्मसात नहीं कर पा रही है।
प्रेम के लिए पहले हमें अपनी देह को भी एक मंदिर की तरह बनाना जरूरी होता हैं। शरीर के रिश्तों को प्रेम नहीं वासना ही माना जाता है। पर पाश्चात्य संस्कृति के अनुयायी भी भी प्रायः शरीर में ही प्रेम देख पाते हैं, वेलेंटाइन डे पर। भारतीय संस्कृति व लोककथाओं में श्रीकृष्ण व राधा,श्रीकृष्ण व यशोदा,श्रीकृष्ण व गोपियों के प्रेम को आदर्श तो माना जाता है पर प्रेम के इस चरमोत्कर्ष का मर्म आत्मसात करने की कोशिश बहुत कम लोग ही करते हैं। अपने पूर्व के एक कॉलम के द्वापर युगीन,प्रेम के देवता माने जाने वाले श्रीकृष्ण के चरित्र पर केंद्रित कुछ प्रसंग यहां जरूर पुन: दोहराना चाहता हूँ जिन पर दो माह पूर्व मैंने एक बड़ी कविता भी लिखी है जो अपने फेस बुक काव्य लाइव में अच्छे श्रोता मिलने पर मैं कभी कभी सुनाता भी हूँ। हिरण्य, कपिला और सरस्वती का संगम। प्रभास क्षेत्र में दूर तक फैली अपूर्व शांति अश्वत्थ के सहारे मौन लेटा है कालपुरूष। हवा के साथ विशाल वृक्ष की डालियां जाने किस संवाद में खोई हैं। खोए हुए तो कृष्ण भी हैं। महाप्रयाण से पूर्व जीवन गाथा के पन्ने उलट-पलट रहे हैं। यमुना के जल में धीमे-धीमे घुल रहा है मोर पंख का रंग और इस जल के बीच सुंदर-सजल आंखें झिलमिलाती हैं, सवाल करती हैं- जा रहे हो कान्हा पर क्या सचमुच अकेले जा सकोगे? सवाल करती इन आंखों के साथ जाने कितनी आंखें याद हो आती है उन्हें।
वसुदेव के साथ गोकुल भेजती देवकी की आंखें, ऊखल से बांधती यशाोदा की आखों , गोकुल में ग्वाल और गोपियों की आंखें, राजसभा में पुकारती द्रौपदी की आंखें , कुरूक्षेत्र में खड़ें अर्जुन की आंखें, प्रभास उत्सव के लिए बिदा करती रूक्मिणी की आंखें, यमुना की आंखें और यमुना की धार में विलीन होती परम प्रिया की आंखें। परम प्रिया राधा जी की आंखों का जल कृष्ण की आंखों से बहने लगता है- तुमसे अलग होकर कहां जाऊंगा? छाया से काया कैसे अलग हो सकती है भला। जहां तुम हो, वहां मैं हूं। कृष्ण की एकमात्र शरण तुम ही तो हो। ऐसा परिहास न करो। मेरी शरण की तुम्हें क्या आवश्यकता कान्हा? कहां मैं एक साधारण-सी ग्वालिन और कहां तुम जैसा असाधारण पुरूष। तुम तो सारी सृष्टि को शरण देते हो। तुम मेरे शरणाार्थी कैसे हो सकते हो? परिहास नहीं सखी। जन्म लेते ही जिसे मां के आंचल को छोड़कर भवसागर की लहरों के बीच उतरना पड़ा, उसकी पीड़ा को तुम्हारे अतिरिक्त कौन हर सकता है? सारी सृष्टि को शरण देने की सामर्थ्य भले हो कृष्ण में, लेकिन कृष्ण को शरण देने की सामर्थ्य केवल तुम्हारे हदय में है। कौन है, जिसकी शरण का आकांक्षी है तीनों लोकों को तारने वाला असाधारण पुरूष? कृष्ण को शरण देने की सामथ्र्य रखने वाला ये हदय किसका है? कृष्ण को शरण देने वाला ये हदय उसी आराधिका का है, जो पहले राधिका बनी और फिर राधिका से कृष्ण की आराध्या हो गई। कृष्ण आराधना करते हैं, इसलिए ये राधा हैं या ये कृष्ण की आराधन करती है, इसीलिए राधिका कहलाती है। सच, बहुत कठिन है इसको परिभाषित करना, क्योंकि इसकी परिभाषा स्वयं कृष्ण हैं। खुद को असाधारण होने की सीमा तक साधारण बनाए रखने वाली ये किशोरी कृष्ण को अनायास ही मिली थी भागवत।
भागवत, रस का गीत हैं। उस गीत का रस भी और कोई नहीं, यही आराधिका है। कृष्ण राधा से पूछते हैं, राधे। भागवत में क्या भूमिका होगी तुम्हारी। राधा कहती है, मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए कान्हा, मैं तो बस तेरी छाया बनकर रहूंगी, तेरे पीछे-पीछे। छाया हां, कृष्ण के प्रत्येक सृजन की पृष्ठभूमि में है। गोवर्धन को धारण करने वाली तर्जनी का बल भी यही छाया है और यही छाया है लोकहित के लिए मथुरा से द्वारिका तक की विषम यात्रा करने वाले कृष्ण की आत्मशक्ति । संपूर्ण ब्रज रंगा है कृष्ण रंग में, कदंब से लेकर कालिंदी अर्थात यमुना तक। सब ओर कृष्ण ही कृष्ण। लेकिन इस कृष्ण की आत्मा बसती है राधा में। वृंदावन की कुंज गलियां हों या मथुरा के घाट हर ओर, हर तरफ बस एक नाम, एक रट, राधा राधा राधा। बांके का बांकपन भी राधा है और योगेश्वर का ध्यान भी राधा है। कृष्ण के विराट को समेटने के लिए जिस राधा ने अपने हदय को इतना विस्तार दिया कि सारा ब्रज ही उसका हदय बन गया। उसी राधा के बारे में भागवत में गोपियां पूछती है कि ये आराधिका आखिर है कौन? पहले तो कभी दिखी नहीं । कौन है वो मानिनी, जिसकी वेणी गूंथता है उनका श्याम, जिसके पैर दबाता है सलोना घनश्याम और हां जब वो रूठ जाती है तो मोर बनकर नृत्य भी करता है । गोपियां ही नहीं, कृष्ण भी पूछते हैं, बूझत श्याम, कौन तू गोरी । लेकिन राधा को बूझना इतना सरल नहीं और राधा को बूझ पाने से भी कठिन है- राधा के प्रेम की थाह बूझ पाना। इसी अथाह प्रेम की थाह पाने के लिए एक बार लीलाधर ने एक लीला रची। स्मृतियां कृष्ण को खींच ले गईं उत्सव के क्षणों में। हर ओर खुशी का सैलाब।
हास-परिहास के बीच अचानक पीड़ा से छटपटाने लगे कृष्ण। ढोल , ढप, मंजीरे खामोश होकर मधुसूदन के मनोहारी मुख पर आती-जाती पीड़ा की रेखाओं को पढऩे लगे। चंदन का लेप शूलांतक वटी कोमलांगी स्पर्श सब व्यर्थ। वैद्य लज्जित से एक-दूसरे को निहार रहे थे। सत्या ने डबडबाती आंखों से पूछा तो उत्तर मिला, मेरे किसी परम प्रिय की चरण धूलि के लेप से ही मेरी पीड़ा ठीक हो सकती है। कृष्ण की पीड़ा बढ़ती ही जा रही है। सोलह हजार रानियां-पटरानियां करोड़ों भक्त, सखा, सहोदर सब प्राण होम करके भी अपने प्रिय की पीड़ा हरने को तैयार हैं, लेकिन प्रभु के मस्तक पर अपनी चरण धूलि लगाकर नर्क का भागी कोई नहीं बनना चाहता। सबने अपने पांव पीछे खींच लिए। राधा ने सुना तो नंगे पांव भागती चली आई। आंसुओं में चरण धूलि का लेप बनाकर लगा दिया कृष्ण के भाल पर। सब हतप्रभ थे। ये कैसी आराधिका है, इसे नर्क का भी भय नहीं। कृष्ण मुस्कुरा दिए, जिसने मुझमें ही तीनों लोक पा लिए हों, वो अन्यत्र किसी स्वर्ग की कामना करें भी तो क्यों ? सारे संसार को मुक्त करने वाला इसीलिए तो बंधा है इस आराधिका से। कृष्ण सबको मुक्त करते हैं, लेकिन राधा कभी मुक्त नहीं करती कृष्ण को। कृष्ण खुद भी कहां मुक्त होना चाहते हैं, ब्रज की इस गोरी के मोहपाश से। कभी-कभी रूक्मिणी छेड़ती हैं, क्या सचमुच बहुत सुंदर थी राधा? कृष्ण कहते हैं हां, बहुत सुंदर इतनी सुंदर कि उसके सामने मौन हो जाती हैं, सौंदर्य की समस्त परिभाषाएं। सूर्योपराग के समय कुरूक्षेत्र में सब उपस्थित हुए हैं । राधा जी भी आई हैं, नंद-यशोदा, गोप-ग्वाल, गोपियों के साथ। रूक्मिणी आश्चर्य में हैं । इस राधा के आते ही सारा परिवेश कैसे एकाएक नीला हो गया है। और कृष्ण का नीलवरण राधा के बसंत से मिलकर कैसे सावन-सावन हो उठा है। यों रूक्मिणी खुद स्वागत कर रही हैं राधा का, लेकिन कैसे बावले हुए जाते हैं कृष्ण। एक जलन-सी उठती है मन में और यही जलन रूक्मिणी सौंप देती हैं राधा को गर्म दूध में। कृष्ण का स्मरण कर एक सांस में पी जाती है राधा। सारा द्वेष, सारी जलन, सारी पीड़ा, लेकिन कृष्ण नहीं झेल पाते। कृष्ण के पैर दबाते समय रूक्मिणी ने देखा कि श्री कृष्ण के पैरों में छाले हैं।
मानों गर्म खौलते तेल से जल गए हों। ये क्या हुआ द्वारिकानाथ, ये फफोले कैसे? कृष्ण बोले, प्रिय राधा के हदय में बसता हूं मैं। तुम्हारे मन की जिस जलन को राधा ने चुपचाप पी लिया देखो वही मेरे तन से फूट पड़ी है। राधा को बड़भागिनी कहता है ये संसार लेकिन बड़भागी तो कृष्ण हैं, जिन्हें राधा जैसी गुरू मिली , सखी मिली, आराधिका मिली। जिसने उन्हें प्रेम, समर्पण और त्याग की वर्णाक्षरी सिखाई। तभी तो दानगढ़ में दान मांगते हैं कृष्ण । दानगढ़ जो बसा है सांकरी खोर और विलासगढ़ से विपरीत दिशा में। यहां राधा के चरणों में झुककर याचक हो जाते हैं कृष्ण। हे राधे बड़ी दानी है तू, सुना है तेरे बरसाने में जो भी आता है, वो खाली हाथ नहीं जाता। मुझे भी दान दे। प्रथम दान अपनी रूप माधुरी का। दूसरा दान तेरे अनंत रस और विलास का। दानगढ़ में कृष्ण को दिया गया, ये महादान ही पाथेय बन जाता है कृष्ण का, गैया चराने वाले गोपाल से द्वारिकाधीश बनने तक की लंबी यात्रा में। कुरूक्षेत्र से लेकर प्रभास तक राधा का यही प्रेम तो जीवन रसधार बनकर बहता रहा कृष्ण के भीतर। गीता का आधार भी यही प्रेम है और महारास का रस भी। वेणु हो या पांचजन्य, दोनों में एक ही स्वर फूटता है। एक ही पुकार उठती है, राधे तेरे नैना बिंधो री बान । कृष्ण से जुड़ी हर स्त्री राधा होना चाहती है। स्वयं कृष्ण भी राधा हो जाना चाहते हैं। लेकिन कृष्ण जानते हैं कि राधा का पर्याय केवल राधा ही हो सकती हैं। इसलिए तो कृष्ण बार बार आना चाहते हैं राधा की शरण में। आंखों में एक चमक सी कोंधती हैं।
दूर कांलिंदी की लहरों पर एकांत पथिक सा नि:शब्द बढ़ रहा है। राधा की मन्नतों का एक दीया। कृष्ण मौन सुन रहे हैं, डूबती द्वारिका के अंधेरों से निकलती अर्थहीन आवाजें और उन आवाजों में घुलता एक सवाल,जा रहे हो कान्हा, पर क्या सचमुच अकेले जा सकोगे? इस वेलेंटाइनडे पर यदि अपने आपको प्रेमी मानने वाले माँ राधा के इस अलौकिक अहसास को जरा सा भी महसूस कर सके तो मैं अपना आज का यह कालम लिखना सार्थक समझूंगा। हम पर श्रीकृष्ण कृपा इसलिए नही होती,क्योंकि हम प्राय: सदैव श्रीकृष्ण से कुछ न कुछ सांसारिक सुख ही मांगते हैं। हम कभी भी श्री कृष्ण से उनके प्रेम के लिए,कोई प्रार्थना नही करते। आज भी यदि गोपी भाव की कातरता के साथ कोई भक्त श्रीकृष्ण को याद करता है तो प्रभु अवश्य आते हैं। उन्होंने गोपियों को वृंदावन के निधि वन में महारास के साथ उनके प्रेम को व उन्हें सदा के लिए अमर कर दिया। अध्यात्म व रूहानी प्रेम का यह इंद्रधनुष आज भी वृंदावन के निधि वन में हर रात बनता हैं। पर कोई देख नही पाया। जिसने देख लिया वह फिर किसी को भी कुछ भी बताने लायक या स्वयं कुछ भी देखने लायक ही नहीं बचा। उसे संसार से भी जाना पड़ा । ऐसी मान्यता आज भी पूरे ब्रज मंडल में मानी जाती हैं। कहते हैं कि प्रतिदिन रात्रिकाल में निधि वन मेंं रहने वाले सैंकड़ों बंदर भी चमत्कारिक रूप से निधि वन से बाहर आ जाते हैं। निधिवन में गोपियां वृक्षोंं की लताएं बनकर दिन में भी नजर आती हैं पर उनकों स्पर्श करने में भी दोष माना जाता है। निधि वन की मिट्टी में विलीन हो जाने की चाहत रहती है हर कृष्ण भक्त में । मैं जब भी वृंदावन गया पाया कि श्री गिरिराज जी,यमुना जी और निधि वन आज भी श्री कृष्ण काल के जीवंंत साक्षी हैं । जरूरत सिर्फ इस सच को महसूस करने की हैं।
श्री कृष्ण के विछोह में गोपियों की सी तड़प को महसूस कर पाने की सामर्थ्य आज कितने श्रीकृष्ण भक्तों में हैं। पश्चिम दुनिया की संस्कृति की और नहीं भागना चाहिए क्योंकि प्रायः आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर पश्चिम सदा अस्त करने का काम ही करता है। सूर्य भी जब पश्चिम की और जाता है तो अस्त हो जाता है। अत: यदि हम पाश्चात्य संस्कृति की और जाएंगे तो हमारा सार्थक जीवन भी अस्त हो जाएगा। इस वेलेंटाइन डे के कालम को अध्यात्म व धर्म के एक बहुत बड़े रहस्य की व्याख्या के साथ विराम देना चाहता हूँ। सारे संसार मेें प्रेम के देवता माने जाने वाले श्रीकृष्ण वास्तव में यह नहीं चाहते थे कि कोई उनसे प्रेम करे। श्रीकृष्ण स्वयं भी किसी से प्रेम नहीं करना चाहते। सच तो यह है कि प्रेम ही कृष्ण है। प्रेम ही कृष्ण है,चार शब्दों का यह वाक्य यूं तो पढ़ने में बहुत आसान है पर समझने में उतना ही कठिन और आत्मसात करने में तो बहुत कठिन हैं। पर इसकी एक सरल व्याख्या भी है। वह यह है कि यदि आप किसी से सच्चा प्रेम करते हैं तो वह दिव्य प्रेम ही आपका ईष्ट बन जाता है, आपका खुदा बन जाता हैं। प्रेम ही कृष्ण है, सोचिए तब प्रेम कितना दिव्य, अलौकिक व अनंत होता होगा। जो साक्षात कृष्ण बन जाए अर्थात परमात्मा बन जाए।
अब आप स्वयं सोचिये कि आपका प्रेम चाहे जिससे हो, चाहे माता, पिता, भाई, बहन, परिजनों, मित्रों, पड़ोसियों , देश वासियों या किसी भी मानव क्या किसी भी जीव मात्र व प्रकृति आदि जिससे भी हो, क्या इतना पवित्र इतना गहरा है?मैं नहीं जानता कितने पाठक इस सवाल की गहराई को भांप सकेंगे। पर यदि थोड़े से भी ऐसा कर सके तो मेरा लेखन सार्थक होगा।हमारे देश में तो साल के 365 दिन हर पल प्रेम से जीने के भारतीय संस्कार हमारी मातृभूमि के कण कण में रचे बसे होते हैं। अतः प्रेम हमारे यहां किसी दिन विशेष का मोहताज़ कभी नहीं रहा। यदि इस भारतीय दर्शन को समझ लिया जाए, आत्मसात कर लिया जाए तो पाश्चात्य संस्कृति के अनुयायी प्रेम दीवानों के लिए भी हर दिन वेलेंटाइन डे ही होगा। ऐसे हजारों प्रेमी ब्रज में व हमारे अन्य पावन तीर्थों में भगवत भाव में प्रेम से रमण करते हुए देखे भी जा सकते हैं कभी भी, यहां तक कि कई अन्य देशों में भी । देवी हेमलता 7 दिन की अपनी भागवत कथा में जिस तरह एक दिन राष्ट्र प्रेम को समर्पित करती हैं , वैसा मेरी जानकारी में तो कोई अन्य भागवताचार्य नहीं करता। अध्यात्म, भक्ति व ज्ञान के साथ वे जिस तरह राष्ट्र भक्ति को सहज रूप से जोड़ पाती हैं, उसके लिए सभी को पूरे देश को उनका अभिनंदन करना ही चाहिए। जय श्री कृष्ण।
चंद्रकांत अग्रवाल (Chandrakant Agrawal)